यदा देवेषु वेदेषु गोषु विप्रेषु साधुषु।
धर्मे मयि च विद्वेषः स वा आशु विनश्यति॥ (७/४/२७)
कोई भी जीव जब देवता, वेद, गाय, ब्राह्मण, साधु, धर्म एवं मुझसे (भगवान् से) द्वेष करने लगता है तब शीघ्र ही उसका विनाश हो जाता है।
गोब्राह्मणार्थे हिंसायां नानृतं स्याज्जुगुप्सितम्॥ (८/१९/४३)
गौ और ब्राह्मण के हित के लिए एवं किसी को मृत्यु से बचाने के लिए असत्य भाषण भी निन्दनीय नहीं है।
श्रीभगवान् सनकादि ऋषियों से कह रहे हैं –
ये मे तनूर्द्विजवरान् दुहतीर्मदीया
भूतान्यलब्धशरणानि च भेदबुद्धया।
द्रक्ष्यन्तघक्षतदृषो ह्यहिमन्यवस्तान्
गृध्रा रूपा मम कुपन्त्यधिदण्डनेतुः ॥
अर्थात् ब्राह्मण, मेरी गायें एवं आश्रयहीन अनाथ प्राणी – ये तीनों मेरे ही शरीर हैं। पापों के कारण विवेकहीन हुए जो लोग उन्हें भेददृष्टि से देखते हैं, उन्हें मेरे द्वारा नियुक्त यमराज के गृध्र रुपी दूत – जो सर्पों के समान क्रोधी हैं – अत्यन्त क्रोधयुक्त होकर चोंचों से नोचते हैं।
गोपुच्छभ्रमणादिभिः॥
गोमूत्रेण स्नापयित्वा पुनर्गोरजसार्भकम्।
रक्षां चक्रुश्च शकृता …॥ (१०/६/१९-२०)
पूतना वध के पश्चात् गोपियों ने बालक श्रीकृष्ण की बाधा उनके मस्तक पर गोपुच्छ फिराकर, गोमूत्र से स्नान करा कर, अंगों में गोरज और गोबर लगाकर उतारी।
तौ वत्सपालकौ भूत्वा सर्वलोकैकपालकौ।
सप्रातराशौ गोवत्सांश्चारयन्तौ विचरेतुः ॥ (१०/११/४५)
सारे लोकों के एकमात्र पालनकर्ता श्याम और बलराम अब बछड़ों के चरवाहे बने हुए हैं। तड़के ही कलेवे की सामग्री लेकर बछड़ों को चराते हुए वे वन-वन घूमते हैं।
कृष्ण-बलराम नंगे पैर ही गायें चराने जाते थे। नन्द-यशोदा द्वारा उपानह् (जूते) धारण करने के सारे आग्रह उन्होंने अस्वीकार कर दिए क्योंकि उनके प्रिय बछड़े भी तो बिना पदत्राण ही विचरते हैं –
कृष्णस्त्वानीते उपानहौ नहि नहिकारेण बहिश्चकार। (श्री गोपालचम्पू)
भगवान् श्रीकृष्ण गोवंश से कितने एकात्म थे, गायें-बछड़े उनकी एक पुकार पर प्रेम परवश हुए दौड़े आते।
मेघगम्भीरया वाचा नामभिर्दूरगान् पशून्।
क्वचिदाह्वयति प्रीत्या गोगोपालमनोज्ञया ॥
धेनवो मन्दगामिन्य ऊधोभारेण भूयसा।
ययुर्भगवताऽऽहूता द्रुतं प्रीत्या स्रुतस्तनीः ॥ (१०/१५/१२, १०/२०/२६)
जब वन में दूर गए हुए गाय और बछड़ों को श्रीकृष्ण मेघगम्भीर वाणी से बड़े प्रेम से उनके नाम ले-लेकर पुकारते, तब गायों आदि का चित्त भी उनके वश में नहीं रहता। उनके स्तनों से दूध झरने लगता और वे दौड़ती हुई भगवान् के पास आ जातीं।
वेणुगीत सुनकर गायों की बड़ी अद्भुत दशा होती है –
गावश्च कृष्णमुखनिर्गतवेणुगीतपीयुषमुत्तभितकर्णपुटैः पिबन्त्यः।
शावाः स्रुतस्तनपयः कवलाः स्म तस्थुर्गोविन्दमात्मनि दृशाश्रुकलाः स्पृशन्त्यः ॥ (१०/२१/१३)
जब प्यारे कृष्ण अपने मुख से बाँसुरी में स्वर भरते हैं और गायें उनका मधुर संगीत सुनती हैं, तब वे अपने दोनों कानों के दोने खड़े कर लेती हैं और मानो उनसे अमृत पी रही हों, इस प्रकार उस संगीत का रस लेती हैं। मानो वे प्यारे कृष्ण को ह्रदय में आबद्ध करके उनका आलिंगन कर रही हों; उनके नेत्रों में आनंदाश्रु छलकने लगते हैं! बछड़ों की दशा तो और भी निराली हो जाती है। यद्यपि गायों के स्तनों से दूध अपने आप झरता रहता है और वे दूध पीते-पीते हठात् वंशीध्वनि सुनते हैं तब मुँह में लिया हुआ दूध न तो वे निगल पाते हैं, न उगल पाते हैं! अपने ह्रदय में भगवान् का संस्पर्श अनुभव करते हुए उनकी आँखों से अश्रुधारा बहने लगती है! वे ठिठके-से ही खड़े रह जाते हैं।
केवल गायें-बछड़े -विभोर होते हों, ऐसा नहीं है। गायें चराते हुए जब खुरों से उड़ी हुई गोरज श्रीकृष्ण की घुँघराली अलकों पर जम जाती है, तब उनके सौंदर्य में ऐसी अभिवृद्धि होती है कि गोपियाँ उनके इस रूप के दर्शन की अभिलाषा करती हैं –
तं गोरजश्छुरितकुन्तलबद्धबहर्वन्यप्रसूनरुचिरेक्षणचारुहासम्। (१०/१५/४२)
श्रीकृष्ण का अभीष्ट ही है गायों और गोपियों के सर्वविध ताप को मिटाना –
मोचयन् व्रजगवां दिनतापम्। (१०/३५/२५)
व्रज में श्रीकृष्ण गायों की सर्वविध सेवा अपने हाथ से ही करते थे। उन्हें चराना, नहलाना, गोष्ठ की सफाई आदि के अतिरिक्त गायें दुहने का कार्य भी दोनों भाई स्वयं करते थे –
व्रजे गोदोहनं गतौ। (१०/३८/२८)
गोसेवा में नियुक्त होने के कारण ही गिरिराज गोवर्धन को भक्तश्रेष्ठ एवं पूजनीय माना गया –
हन्तायमद्रिरबला हरिदासवर्यो
यद् रामकृष्णचरणस्पर्शप्रमोदः।
मानं तनोति सहगोगणयोस्तयोर्यत्
पानीयसुयवसकन्दरकन्दमूलैः ॥ (१०/२१/१८)
गायों और कृष्ण-बलराम के लिए विश्राम-हेतु कन्दराएँ, खाने के लिए कन्दमूल, जल तथा हरी-हरी घास के व्यवस्था करने वाला गिरिराज गोवर्धन धन्य है।