(गौ तंत्र २/६९-७१): गौ तंत्र में भगवान् शिव माता पार्वती से कहते हैं –
गुरौ मनुष्यबुद्धिं तु मन्त्रे वर्णमतिं तथा।
पशुबुद्धिं गवां कृत्वा मनुष्यो नरकं व्रजेत्॥
गुरु को मनुष्य मानने से, मंत्र को अक्षर मानने से और गाय को पशु मानने से मनुष्य नरकों में जाता है।
गोपूजा परमा पूजा गोसेवा परमं तपः।
गोमन्त्रः परमो मन्त्रः यो जानाति स मुच्यते॥
गौ की पूजा परम पूजा है। गौ की सेवा उत्तम तप है। गौ मंत्र का जप श्रेष्ठ मंत्र है। जो ऐसा जानता है, वह मुक्त हो जाता है।
गोरुपां जगद्धात्रीं सृष्टिस्थित्यन्त कारिणीम्।
हृदि ध्यात्वा प्रवर्ते यः जीवनमुक्तः सः जायते॥
उत्पत्ति, पालना एवं संहार करने वाली जगदम्बा रूपिणी गाय का ह्रदय में जो ध्यान करते हुए संसार के काम करता है, वह जीते जी मुक्त हो जाता है।
(गौ तंत्र १/२८-३१):
अतएव महेशानि गवां पूजनं पालनम्।
सर्वसिद्धिकरं दुःखहरं क्लेशविवर्जितम्॥
हे महेशानि! गायों का पूजन-पालन सम्पूर्ण सिद्धियों को प्रदान करने वाला है, समस्त दुःखों का हरण और यह क्लेशरहित साधन है।
धर्मार्थकाममोक्षाणां साधनं सुखदं नृणाम्।
अस्मात् परतरं नास्ति सत्यं सत्यं महेश्वरि॥
हे भगवती पार्वती! मैं तुमसे सत्य-सत्य कहता हूँ कि सभी मनुष्यों को सुख देने वाला एवं धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष का इससे श्रेष्ठ कोई और साधन नहीं है।
गोरूपायाः दुर्गायाः प्रसादेन प्रसिद्ध्यन्ति मनोरथाः।
अणिमादि सिद्धयः सर्वे स्वयं धावन्ति पृष्ठतः॥
गोमाता रूपी दुर्गा की कृपा से सारे मनोरथ विशेष रूप से सिद्ध हो जाते हैं। अणिमा आदि सभी सिद्धियाँ पीछे-पीछे दौड़ती हैं।
स्वल्पतोष्या जगद्धात्री गोरूपा हि स्वभावतः।
ददाति विपुलान् भोगान् मोक्षं चैव न संशयः॥
स्वभाव से थोड़ी सेवा से ही प्रसन्न होने वाली, संसार की पालना करने वाली गोमाता अनेक भोग एवं मोक्ष प्रदान करती है, इसमें कोई संदेह नहीं है।
गवां तु दर्शनं देवि महामाङ्गल्यदायकम्।
प्रातःकाले समुत्थाय यात्रारम्भे तथैव च।
प्रथमं गोदर्शनं कृत्वा नरो विघ्नैर्नबाध्यते॥
स्वल्पायासेन लभते कार्यसिद्धिं न संशयः।
सर्वकालेऽपि देवि दर्शनं मङ्गलप्रदम्॥
हे देवि! गाय का दर्शन करना महान मंगलदायक है। प्रातःकाल उठते ही तथा यात्रा आरम्भ करने से पूर्व गाय को प्रणाम करने से कोई विघ्न उपस्थित नहीं होता और थोड़े प्रयास से ही उसके काम बन जाते हैं। किसी भी समय गाय का दर्शन करने से शुभ-मंगल की प्राप्ति होती है।
गवां चरणधूलिं तु सर्वपापप्रनाशनम्।
ललाटे मस्तके धार्यं गङ्गास्नानफलं लभेत्॥ (गौ तंत्र २/10)
जो गोष्ठ में जाकर गायों की चरणरज को अपने मस्तक या ललाट पर धारण करता है, उसको तत्काल गंगास्नान का फल प्राप्त होता है।
स्वगवां भोज्येत्वात्तु यत्फलं लभते नरः।
द्विगुणं तस्य लभते परगां भोज्येत् यदि॥
गुरोर्गां भोज्येत्वात्तु चतुर्गुणफलं लभते।
अपनी गाय को भोजन कराने से जो फल प्राप्त होता है, किसी दूसरे की गाय को भोजन कराने से उससे दोगुणा फल और गुरुजनों की गाय को भोजन कराने से उससे चार गुणा फल मिलता है।
गोदान का महत्त्व:
(गौ तंत्र ४/३-६)
अन्नदानं वस्त्रदानं द्रव्यदानं तथैव च।
विद्यादानं च भूदानं कन्यादानं तथैव च॥
गोदानस्य महादेवि कलां नार्हन्ति षोडशीम्।
स्वर्गापवर्गदं चैव सर्वकामप्रदं तथा॥
हे देवी! अन्नदान, वस्त्रदान, द्रव्यदान, विद्यादान, भूदान तथा कन्यादान – इनका दान गोदान के सोलहवें भाग के बराबर भी नहीं है।
सर्वव्याधिहरं चैव सर्वापत्ति निवारणम्।
सर्वपापप्रशमनं गोदानं परिकीर्तितम्॥
गोदान की ऐसी महिमा बताई गयी है कि वह समस्त रोगों को दूर करता है और सभी विपत्तियों एवं पापों का अंत करने वाला है।
सर्वपापसमायुक्तो गोदानं कुरुते यदि।
न तस्य नरके वासः शासनात् मम सुव्रते॥
हे सुव्रते (पार्वती)! समस्त पापों से पीड़ित व्यक्ति भी यदि गोदान करता है तो मेरी आज्ञा के कारण उसे नरक में नहीं रहना पड़ता है।
गोपालन/गोरक्षा
गां सदा रक्षेत् देवि प्राणैरपि धनैरपि।
अस्मात् परतरं पुण्यो नास्ति नास्ति महीतले॥
हे देवी! गौ की सदा धन अथवा प्राण देकर भी रक्षा करनी चाहिए। समस्त पृथ्वी पर इससे बढ़कर कोई दूसरा पुण्य नहीं है।
गवां तु प्राणरक्षार्थे प्राणत्यागं करोति यः।
सोऽपि मयि विलीयते न पुनर्जायते भुवि॥
वहनात् तस्य प्रेतस्य तद् भस्मधारणादपि।
दाहस्थलं तस्य दृष्ट्वा नरः पापैः प्रमुच्यते॥
तस्य पुत्रकलत्रादीं पालयेत् यस्तु भक्तितः।
साहाय वा धनैः कुर्यात् तस्य पुण्यं न गण्यते॥
जो कोई अपने प्राण त्याग कर भी गौ की प्राण-रक्षा करता है, वह इस धरा पर पुनर्जन्म नहीं लेता; मरणोपरांत वह मुझमें ही विलीन (अर्थात् मुक्त) हो जाता है।
यहाँ तक कि उसके मृत शरीर को कंधा देने वाला, उसकी चिता के भस्म को धारण करने वाला और उसके दाह-संस्कार के स्थान को देखने वाला भी पापों से सर्वथा मुक्त हो जाता है।
जो व्यक्ति उसकी संतान और पत्नी की भावपूर्वक पालना या धन द्वारा सहायता करता है, उसके अगणित (अनंत) पुण्य होते हैं।
गोग्रास की महिमा
गामादौ भोजयित्वा एव भोजनं स्वयमाचरेत्।
कदाचित् यदि गां दातुं भोजनं नैव लभ्यते।
स्वयमापि न भुञ्जयात् उपवासं समाचरेत्॥
एवं व्रतं समास्थाय पालनं कुरुते तु यः॥
स गोभक्तशिरोरत्नः स्वर्गं याति सुनिश्चितम्॥
स्वभोज्यात् किञ्चिदादाय प्रथम दापयेत् गवे।
पश्चादेव यो भुक्त्येत् धनैः धानैर्नहीयते॥
गोग्रासं इदं देवि सर्वपुण्यशिरोमणि।
आरम्भ में गौ को भोजन देकर फिर स्वयं भोजन करना चाहिए। गाय को देने के लिए भोजन उपलब्ध न होने पर स्वयं भी भोजन न कर उपवास करना चाहिए। ऐसे व्रत का जो पालन करता है, वह मस्तकमणि रूपी गोभक्त स्वर्ग प्राप्त करता है।
अपने भोजन से कुछ भाग निकाल कर पहले गौ को अर्पित करना चाहिए; उसके बाद स्वयं भोजन लेना चाहिए। जो ऐसा करता है, वह सदा धन-धान्य से सम्पन्न रहता है।
हे देवी! गोग्रास (गौ का भोजन) देना सभी पुण्यों से बढ़कर है।
गोभक्ति/गोपूजा
सर्वेषां चैव देवानां पूजनेन तु यत् फलम्।
तत्फलं सर्वं लभते देवि गवां पूजनमात्रतः॥
हे देवी! सभी देवताओं की पूजा करने का जो फल प्राप्त होता है, वह समस्त फल एक गौ की पूजा से ही प्राप्त हो जाता है।
किं तीर्थयात्रया देवि किं च देवप्रपूजनात्।
सर्वे देवाश्च तीर्थश्च गवे इव प्रतिष्ठिता॥
गोपूजां भक्तितः कृत्वा प्रदक्षिणं अनुव्रजन्।
सर्वतीर्थफलं देवि लभते नात्र संशयः॥
हे देवी! तीर्थयात्रा से क्या और देवपूजा से क्या (लाभ)? समस्त तीर्थ और सभी देवताएँ तो गौ में ही प्रतिष्ठित हैं। भक्तिपूर्वक गोपूजा करके गौ की प्रदक्षिणा करने से समस्त तीर्थों की यात्रा का फल प्राप्त होता है, इसमें कोई संदेह नहीं है।