Cows praised in the Vedas | वेद में गौ की महिमा

गौ की महिमा का उल्लेख वेदादि सभी शास्त्रों में मिलता है। भगवान सूर्यदेव की एक प्रधान किरण का नाम ‘गौ’ है। यह किरण गौ-पशु में अधिक मात्रा में समाविष्ट होती है, अतएव आर्यजाति इस पशु को ‘गौ’ नाम से पुकारती है। ‘गौ’ नामक सूर्य-किरण की पृथ्वी स्थावरमूर्ति (अचल रूप) और गौ-पशु जंगममूर्ति (चल रूप) है। शास्त्रों में दोनों को ‘गो’ शब्द से अंकित किया गया है। शुक्ल यजुर्वेद में गौ और पृथ्वी – इन दोनों के संबंध में प्रश्न किया गया है कि ‘कस्य मात्रा न विद्यते?’ अर्थात् किसका परिमाण (उपमा) नहीं है? (शु. य. २३/४७)। इसका उत्तर दिया गया है – ‘गोस्तु मात्रा न विद्यते’। अर्थात् गौ का परिमाण (उपमा) नहीं है।

ब्रह्म सूर्यसमं ज्योतिर्द्यौः समुद्रसमं सरः।

इन्द्रः पृथिव्यै वर्षीयान् गोस्तु मात्रा न विद्यते॥ (यजुर्वेद २३/४८)

जिस ब्रह्मविद्या द्वारा मनुष्य परम सुख को प्राप्त करता है, उसकी सूर्य से उपमा दी जा सकती है। उसी प्रकार द्युलोक की समुद्र से तथा विस्तीर्ण पृथ्वी की इन्द्र से उपमा दी जा सकती है, किन्तु प्राणिमात्र के अनन्त उपकारों को अकेली सम्पन्न करने वाली गौ की किसी से उपमा नहीं दी जा सकती। गौ निरुपमा है, गौ के समान उपकारी जीव मनुष्य के लिए दूसरा कोई भी नहीं है।

वेद ने गौ को विश्वरूप और सर्वरूप भी कहा है –

एतद्वै विश्वरूपं सर्वरूपं गोरूपम्। (अथर्ववेद ९/७/२५)

गौ और पृथ्वी – ये दोनों गौ के ही स्वरूप हैं। ये दोनों ही एक-दूसरी की सहायिका और सहचरी हैं। मृत्युलोक की आधारशक्ति ‘पृथ्वी’ है और देवलोक की आधारशक्ति ‘गौ’ है। संसार में पृथ्वी और गौ से अधिक क्षमावान और कोई नहीं है। अतः ये दोनों ही महान हैं।

गोरिति पृथिव्या नामधेयम्‘ (निरुक्त २/१/१) अर्थात् गौ यह पृथ्वी का वाचक है।

वैश्वदेवी वै गौः‘ ‘यद् गां ददाति विश्वेषामेतद् देवानां तेन प्रियं धाम उपैति‘ (गोपथब्राह्मण ३/३/१९)

‘धनं च गोधनं प्राहुः’ के अनुसार विद्वानों ने ‘गौ’ को ही असली धन कहा है।

गौ स्वर्ग और मोक्ष की सीढ़ी है। यह परम पावन और सबकी कामना पूर्ण करने वाली मंगलदायिनी देवी है। गोमाता की सेवा से पुरुषार्थ चतुष्टय (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) की प्राप्ति और लौकिक-अलौकिक कल्याण की प्राप्ति होती है। गोसेवा से मनुष्य के अगणित कुलों का उद्धार और उनकी यम-यातना से मुक्ति होती है। गोसेवा से पुत्रप्राप्ति, लक्ष्मीप्राप्ति, विद्याप्राप्ति, यशप्राप्ति, ज्ञानप्राप्ति, बलप्राप्ति और दीर्घायु की प्राप्ति होती है।

यजुर्वेद ने इस मंत्र में गौ के बहुत से गुणों का अभिव्यंजन कर दिया है –

इडे रन्ते हव्ये काम्ये चन्द्रे ज्योतेऽदिते सरस्वति महि विश्रुति।

एता ते अघ्न्ये नामानि देवेभ्यो मा सुकृतं ब्रूतात् ॥ (यजुर्वेद ८/४३)

वेद ने गौ के लिए इडा और विश्रुति पदों का प्रयोग कर यह सूचित किया है कि गौ स्तुत्य है, उसकी स्तुति की जानी चाहिए। ‘काम्या’ शब्द से सूचित किया कि गौ सबकी कामनाओं को पूर्ण करने वाली है। श्रुति ने ‘चन्द्रा’ शब्द से इंगित किया है गौ सबको आह्लाद प्रदान करने वाली होती है। ‘ज्योता’ पद से व्यक्त होता है कि गौ नरक आदि अंधकार से निकाल कर प्रकाश में ला देती है।

या ते धामान्युश्मसि गमध्यै

        यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयासः।

अत्राह तदुरुगायस्य विष्णोः

          परमं पदमव भारि भूरि॥ (शुक्लयजुर्वेद ६/३)

मैं तुम्हारे उन लोकों को जाना चाहता हूँ, जहाँ बड़ी-बड़ी सींगवाली बहुत सी गौएँ रहती हैं। जहाँ पर गौएँ रहती हैं, वहाँ विष्णु भगवान का परम प्रकाश प्रकाशित रहता है।

माता रुद्राणां दुहिता वसूनां

      स्वसादित्यानाममृतस्य नाभिः। (ऋग्वेद ८/१०१/१५)

गौ एकादश (11) रुद्रों की माता, अष्ट (8) वसुओं की कन्या और द्वादश (12) आदित्यों की बहन है, जो कि अमृत रूप दुग्ध को देने वाली है।

देवो वः सविता प्रापर्यतु श्रेष्ठतमाय कर्मण आप्यायध्वमघ्न्या इन्द्राय भागं प्रजवतीरनमीवा अयक्ष्मा मा व स्तेन ईशत माघश सो ध्रुवा अस्मिन् गोपतौ स्यात॥ (शुक्लयजुर्वेद १/१)

हे गौओं ! प्राणियों को तत्तत्कार्यों में प्रविष्ट कराने वाले सविता (सूर्य) देव तुम्हें हरित-शस्य-परिपूर्ण विस्तृत क्षेत्र (गोचर भूमि) में चरने के लिए ले जायँ क्योंकि तुम्हारे द्वारा श्रेष्ठ कर्मों का अनुष्ठान होता है। हे गौओं ! तुम इन्द्रदेव के क्षीरमूलक भाग को बढ़ाओ अर्थात् तुम अधिक दूध देने वाली हो। तुम्हारी कोई चोरी न कर सके, बाघ आदि हिंसक जीव-जंतु न मार सकें क्योंकि तुम तमोगुणी दुष्टों द्वारा मारे जाने योग्य नहीं हो। तुम बहुत संतति उत्पन्न करने वाली हो, तुम्हारी संततियों से संसार का बड़ा कल्याण होता है। तुम जहाँ रहती हो, वहाँ पर किसी प्रकार की आधि-व्याधि नहीं आने पाती। यहाँ तक कि यक्ष्मा (TB) आदि रोग भी तुम्हारे पास नहीं आ सकते। अतः तुम सर्वदा यजमान के घर में सुखपूर्वक निवास करो।

सा विश्वायुः सा विश्वकर्मा सा विश्वधायाः। (शुक्लयजुर्वेद १/४)

वह गौ यज्ञ सम्बन्धी समस्त ऋत्विजों की तथा यजमान की आयु को बढ़ाने वाली है। वह गौ यज्ञ के समस्त कार्यों का सम्पादन करने वाली है। वह यज्ञ के समस्त देवताओं का पोषण करने वाली है अर्थात् दुग्धादि हवि पदार्थ देने वाली है।

इड एह्यदित एहि काम्या एत। मयि वः कामधरणं भूयात्॥ (शुक्लयजुर्वेद ३/२७)

हे पृथ्वीरूप गौ ! तुम इस स्थान पर आओ। घृत द्वारा देवताओं को माता अदिति के सदृश पालन करने वाली अदितिरूप गौ ! तुम इस स्थान पर आओ। हे गौ ! तुम समस्त साधनों को देने वाली होने के कारण सभी की आदरणीया हो। हे गौ ! तुम इस स्थान पर आओ। तुमने हमें देने के लिए जो अपेक्षित फल धारण किया है, वह तुम्हारी कृपा से हमें प्राप्त हो। तुम्हारी प्रसन्नता से हम अभीष्ट फलों को धारण करने वाले बनें।

वीरं विदेय तव देवि सन्दृशि। (शुक्लयजुर्वेद ४/२३)

हे मन्त्रपूत दिव्य गौ ! तुम्हारे सुन्दर दर्शन के महत्त्व से मैं बलवान पुत्र को प्राप्त करूँ।

क्षुमन्तं वाजसहस्रिणं मक्षु गोमन्तमीमहे। (सामवेद, उत्तरार्चिक १/३)

हम पुत्र-पौत्रादि सहित सैकड़ों-हजारों की संख्या वाले धनों की और गौ आदि से युक्त अन्न की शीघ्र याचना करते हैं।

धेनुष्ट इन्द्र सूनृता यजमानाय सुन्वते।

        गामश्वं पिप्युषी दुहे। (सामवेद, उत्तरार्चिक २०/७)

हे इन्द्र ! तुम्हारी स्तुति रूपा सत्य वाणी गौरूप होकर यजमान की वृद्धि की इच्छा करती हुई यजमान के लिए गौ, घोड़े आदि समस्त अभिलषित वस्तुओं का दोहन करती (दुहती) है।

इमा या गावः स जनास इन्द्रः ….॥ (अथर्ववेद ४/२१/५)

जिसके पास गौएँ रहती हैं, वह तो एक प्रकार से इन्द्र ही है।

यूयं गावो मेदयथा कृशं चिदश्रीरं

           चित्कृणुथा सुप्रतीकम्।

भद्रं गृहं कृणुथ भद्रवाचो

          बृहद्वो वय उच्यते सभासु॥ (अथर्ववेद ४/२१/६)

हे गौओं ! तुम अपने दुग्ध-घृतादि द्वारा दुर्बल मनुष्यों को हृष्ट-पुष्ट करती हो और निस्तेजों को तेजस्वी बनाती हो। तुम अपने मंगलमय शब्दोच्चारण से हमारे घरों को मंगलमय बनाती हो। इसलिए सभाओं में तुम्हारी कीर्ति का वर्णन होता रहता है।

वशां देवा उप जीवन्ति वशां मनुष्या उत।

वशेदं सर्वमभवद् यावत् सूर्यो विपश्यति॥ (अथर्ववेद १०/१०/३४)

वशा (वश में रहने वाली) गौ के द्वारा प्राप्त दुग्धादि पदार्थों से देवता और मनुष्य जीवन प्राप्त करते हैं। जहाँ तक सूर्यदेव का प्रकाश होता है, वहाँ तक गौ ही व्याप्त है अर्थात् यह समस्त ब्रह्माण्ड गौ के आधार पर ही स्थित है।

धेनुं सदनं रयीणाम्। (अथर्ववेद ११/१/३४)

गौ सम्पत्ति का घर है।

महाँस्त्वेव गोर्महिमा। (शतपथब्राह्मण ३/३/३/१)

गौ की महिमा महान है।

गौवै प्रतिधुक्। तस्यै शृतं तस्यै शरस्तस्यै दधि तस्यै मस्तु तस्याऽआतञ्चनं तस्यै नवनीतं तस्यै घृतं तस्याऽआमिक्षा तस्यै वाजिनम्॥ (शतपथब्राह्मण ३/३/३/२)

गोमाता हमें प्रतिधुक् (ताजा दूध), शृत (गरम दूध), शर (मक्खन निकाला हुआ दूध), दही, मठ्ठा, घृत, खीस, वाजिन (खीस का पानी), नवनीत और मक्खन – ये दस प्रकार के अमृतमय भोजनीय पदार्थ देती है।