शरीरं सुरूपं तथा वा कलत्रं यशश्र्चारु चित्रं धनं मेरुतुल्यम् ।
गुरोरङ्घ्रिपद्मे मनश्र्चेन लग्नं ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥ 1 ॥
किसी के पास सुंदर शरीर, सुंदर जीवनसाथी, उत्कृष्ट प्रसिद्धि और मेरु पर्वत (सोने का एक पर्वत) जितनी संपत्ति हो परन्तु उसका मन गुरु के चरणकमलों में न लगता हो, तो इन उपलब्धियों से क्या लाभ?
One may have a beautiful body, a good-looking spouse, an excellent fame, and as much wealth as the Mount Meru (a mount of gold); yet if one’s mind is not attracted to the Guru’s lotus feet, then what’s the use?
कलत्रं धनं पुत्रपौत्रादि सर्वं गृहं बान्धवाः सर्वमेतद्धि जातम् ।
गुरोरङ्घ्रिपद्मे मनश्र्चेन लग्नं ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥ 2 ॥
किसी के पास जीवनसाथी, धन, पुत्र-पौत्र, भाई-बहन, घर, सभी सगे संबंधी, आदि हो, परन्तु उसका मन गुरु के चरण कमलों में नहीं लगता हो, तो इन सब का क्या लाभ?
If someone has a life partner, money, children-grandchildren, brothers-sisters, house, all the relatives, etc., but their mind is not focused on the Guru’s lotus feet, then what is the use of all this?
षडङ्गादिवेदो मुखे शास्त्रविद्या कवित्वादि गद्यं सुपद्यं करोति ।
गुरोरङ्घ्रिपद्मे मनश्र्चेन लग्नं ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥ 3 ॥
वेद एवं षटवेदांगादि शास्त्र जिन्हें कंठस्थ हो, कविता निर्माण की प्रतिभा हो, गद्य पद्य की रचना करते हों, परन्तु जिनका मन गुरु के चरण कमलों में नहीं लगता हो, तो इन सारी उपलब्धियों से क्या लाभ?
Those who have memorized scriptures such as the Vedas and the six Vedangas, have the poetic gift, compose fine prose and poetry, but whose mind is not attached to the lotus feet of the Guru, then what is the benefit of all these achievements?
विदेशेषु मान्यः स्वदेशेषु धन्यः सदाचारवृत्तेषु मत्तो न चान्यः ।
गुरोरङ्घ्रिपद्मे मनश्र्चेन लग्नं ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥ 4 ॥
जिन्हें विदेशों में आदर मिलता हो, अपने देश में जिनका जयजयकार हो और जिनका यह विचार हो कि ‘सदाचार में मेरे जैसा कोई भी नहीं है’, परन्तु जिनका मन गुरु के चरण कमलों में नहीं लगता हो, तो इन सबका क्या लाभ?
Those who are respected in foreign countries, who are hailed in their own country and who have the thought that ‘There is no one like me in good conduct’, but whose mind is not attached to the lotus feet of the Guru, then what is the use of all this?
क्षमामण्डले भूपभूपालवृन्दैः सदासेवितं यस्य पादारविन्दम् ।
गुरोरङ्घ्रिपद्मे मनश्र्चेन लग्नं ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥ 5 ॥
जिन महानुभाव के चरणकमल पृथ्वीमण्डल के राजा-महाराजाओं से नित्य पूजित रहा करते हों, किंतु उनका मन यदि गुरु के श्री चरणों में आसक्त न हो तो इससे क्या लाभ?
Whose lotus feet are worshipped daily by the kings and emperors of the world, but if their mind is not attached to the feet of the Guru, what is its benefit?
यशो मे गतं दिक्षु दानप्रतापा जगद्वस्तु सर्वं करे यत्प्रसादात् ।
गुरोरङ्घ्रिपद्मे मनश्र्चेन लग्नं ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥ 6 ॥
दानवृत्ति के प्रताप से जिनकी कीर्ति सारे दिशाओं में व्याप्त हो, गुरु की कृपा से जिन्हें संसार के सारे सुख-ऐश्वर्य हस्तगत हों, किंतु उनका मन यदि गुरु के श्रीचरणों में आसक्तिभाव न रखता हो, तो इन सारे ऐश्वर्यों से क्या लाभ?
Whose fame spreads in all directions due to the glory of charity, who by the grace of Guru has acquired all the happiness and luxuries of the world, but if their mind is not attached to the feet of the Guru, then what is the benefit of all these opulences?
न भोगे न योगे न वाजिराजौ न कान्तामुखे नैव वित्तेषु चित्तम् ।
गुरोरङ्घ्रिपद्मे मनश्र्चेन लग्नं ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥ 7 ॥
जिनका मन भोग, योग, अश्व, राज्य, धनोपभोग और स्त्री के मनमोहक चेहरे से से कभी विचलित न हुआ हो, परन्तु गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न बन पाया हो तो इस मन की अटलता से क्या लाभ?
Whose mind has never been distracted by pleasures, yoga, horses, kingdom, wealth and enchanting face of the beloved, but has not been able to become attached to the Guru’s feet, then what is the benefit of the steadfastness of this mind?
अरण्ये न वा स्वस्य गेहे न कार्ये न देहे मनो वर्तते मे त्वनर्घ्ये ।
गुरोरङ्घ्रिपद्मे मनश्र्चेन लग्नं ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥ 8 ॥
जिनका मन वन या अपने भवन में, अपने कार्य या शरीर में तथा अमूल्य भंडार में आसक्त न हो, परन्तु गुरु के श्रीचरणों में भी यदि वह मन आसक्त न हो पाये तो उसकी सारी अनासक्तियों का क्या लाभ?
Whose mind is not attached to the forest or his house, to his work or his body or to the priceless treasures, but if that mind is not attached to the feet of the Guru, then what is the use of all his non-attachments?
गुरोरष्टकं यः पठेत्पुण्यदेही, यतिर्भूपतिर्ब्रह्मचारी च गेही ।
लभेद्वाञ्छितार्थं पदं ब्रह्मसंज्ञं, गुरोरुक्तवाक्ये मनो यस्य लग्नम् ॥ 9 ॥
– श्रीमद आद्य शंकराचार्यविरचितम्
जो यति, राजा, ब्रह्मचारी एवं गृहस्थ इस गुरु अष्टक का पठन-पाठन करता है और जिसका मन गुरु के वचन में आसक्त है, वह पुण्यशाली शरीरधारी अपने इच्छितार्थ अर्थात् ब्रह्मपद को संप्राप्त कर लेता है यह निश्चित है।
Whoever – a holy person, ascetic, king, or householder – reads, studies and recites this Ashtakam on Guru and remains devoted and attentive to the sayings of the Guru, attains his coveted object, namely the supreme abode of Brahman.
– Composed by Shrimad Adi Shankaracharya.