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ToggleMahalakshmi Ashtakam | महालक्ष्म्यष्टकम्
इन्द्र उवाच –
नमस्तेऽस्तु महामाये श्रीपीठे सुरपूजिते।
शङ्खचक्रगदाहस्ते महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते ॥1॥
इन्द्र बोले – श्रीपीठ पर स्थित और देवताओं से पूजित होनेवाली हे महामाये! तुम्हें नमस्कार है। हाथ में शंख, चक्र और गदा धारण करने वाली हे महालक्ष्मि! तुम्हें प्रणाम है।
नमस्ते गरुडारूढे कोलासुरभयङ्करि।
सर्वपापहरे देवि महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते ॥2॥
गरुड़ पर आरूढ़ हो कोलासुर को भय देनेवाली और समस्त पापों को हरने वाली हे भगवति महालक्ष्मि! तुम्हें प्रणाम है।
सर्वज्ञे सर्ववरदे सर्वदुष्टभयङ्करि।
सर्वदुःखहरे देवि महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते ॥3॥
सब कुछ जानने वाली, सबको वर देने वाली, समस्त दुष्टों को भय देने वाली और सबके दुःखों को दूर करने वाली, हे देवि महालक्ष्मि! तुम्हें नमस्कार है।
सिद्धिबुद्धिप्रदे देवि भुक्तिमुक्तिप्रदायिनि।
मन्त्रपूते सदा देवि महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते ॥4॥
सिद्धि, बुद्धि, भोग और मोक्ष देनेवाली हे मंत्रपूत भगवति महालक्ष्मि! तुम्हें सदा प्रणाम है।
आद्यन्तरहिते देवि आद्यशक्तिमहेश्वरि।
योगजे योगसम्भूते महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते ॥5॥
हे देवि! हे आदि-अन्त-रहित आदिशक्ते! हे महेश्वरि! हे योग से प्रकट हुई भगवति महालक्ष्मि! तुम्हें नमस्कार है।
स्थूलसूक्ष्ममहारौद्रे महाशक्तिमहोदरे।
महापापहरे देवि महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते ॥6॥
हे देवि! तुम स्थूल, सूक्ष्म एवं महारौद्ररूपिणी हो, महाशक्ति हो, महोदरा हो और बड़े-बड़े पापों का नाश करने वाली हो। हे देवि महालक्ष्मि! तुम्हें नमस्कार है।
पद्मासनस्थिते देवि परब्रह्मस्वरूपिणि।
परमेशि जगन्मातर्महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते ॥7॥
हे कमल के आसन पर विराजमान परब्रह्मस्वरूपिणी देवि! हे परमेश्वरि! हे जगदम्बे! हे महालक्ष्मि! तुम्हें मेरा प्रणाम है।
श्वेताम्बरधरे देवि नानालङ्कारभूषिते।
जगत्स्थिते जगन्मातर्महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते ॥8॥
हे देवि! तुम श्वेत वस्त्र धारण करने वाली और नाना प्रकार के आभूषणों से विभूषिता हो। सम्पूर्ण जगत में व्याप्त एवं अखिल लोक को जन्म देने वाली हो। हे महालक्ष्मि! तुम्हें मेरा प्रणाम है।
महालक्ष्म्यष्टकं स्तोत्रं यः पठेद्भक्तिमान्नरः।
सर्वसिद्धिमवाप्नोति राज्यं प्राप्नोति सर्वदा ॥9॥
जो मनुष्य भक्तियुक्त होकर इस महालक्ष्म्यष्टक स्तोत्र का सदा पाठ करता है, वह सारी सिद्धियों और राज्य-वैभव को प्राप्त कर सकता है।
एककाले पठेन्नित्यं महापापविनाशनम्।
द्विकालं यः पठेन्नित्यं धनधान्यसमन्वितः ॥10॥
जो प्रतिदिन एक समय पाठ करता है, उसके बड़े-बड़े पापों का नाश हो जाता है। जो दो समय पाठ करता है, वह धन-धान्य से संपन्न होता है।
त्रिकालं यः पठेन्नित्यं महाशत्रुविनाशनम्।
महालक्ष्मीर्भवेन्नित्यं प्रसन्ना वरदा शुभा ॥11॥
जो प्रतिदिन तीन काल पाठ करता है, उसके महान शत्रुओं का नाश हो जाता है और उसके ऊपर कल्याणकारिणी वरदायिनी महालक्ष्मी सदा ही प्रसन्न होती हैं।
॥ इतीन्द्रकृतं महालक्ष्म्यष्टकं संपूर्णम् ॥
इस प्रकार इन्द्र रचित महालक्ष्म्यष्टकं पूरा होता है।
Lakshmi Stotram by Indra | इन्द्रकृत लक्ष्मी स्तोत्रम्
(ब्रह्मवैवर्तमहापुराण – प्रकृतिखण्ड – 49|51-71)
इन्द्र उवाच
ॐ नमो महालक्ष्म्यै ॥
ॐ नमः कमलवासिन्यै नारायण्यै नमो नमः।
कृष्णप्रियायै सारायै पद्मायै नमो नमः ॥1॥
देवराज इंद्र बोले – भगवती कमलवासिनी को नमस्कार है। देवी नारायणी को बार-बार नमस्कार है। संसार की सारभूता कृष्णप्रिया भगवती पद्मा को बारम्बार नमन है।
पद्मपत्रेक्षणायै च पद्मास्यायै नमो नमः।
पद्मासनायै पद्मिन्यै वैष्णव्यै च नमो नमः ॥2॥
कमल रत्न के समान नेत्र वाली, कमलमुखी भगवती महालक्ष्मी को नमस्कार है। पद्मासना, पद्मिनी एवं वैष्णवी नाम प्रसिद्द भगवती महालक्ष्मी को बार-बार नमस्कार है।
सर्वसम्पत्स्वरूपायै सर्वदात्र्यै नमो नमः।
सुखदायै मोक्षदायै सिद्धिदायै नमो नमः ॥3॥
सर्वसम्पत्स्वरूपिणी सर्वदात्री देवी को नमस्कार है। सुखदायिनी, मोक्षदायिनी और सिद्धिदायिनी देवी को बारम्बार नमस्कार है।
हरिभक्तिप्रदात्र्यै च हर्षदात्र्यै नमो नमः।
कृष्णवक्षःस्थितायै च कृष्णेशायै नमो नमः ॥4॥
भगवान श्रीहरि में भक्ति उत्पन्न करने वाली तथा हर्ष प्रदान करने में परम कुशल देवी को बार-बार नमस्कार है। भगवान श्रीकृष्ण के वक्षःस्थल पर विराजमान एवं उनकी हृदयेश्वरी देवी को बारंबार प्रणाम है।
कृष्णशोभास्वरूपायै रत्नपद्मे च शोभने।
सम्पत्त्यधिष्ठातृदेव्यै महादेव्यै नमो नमः ॥5॥
रत्नपद्मे! शोभने! तुम श्रीकृष्ण की शोभास्वरूपा हो, सम्पूर्ण संपत्ति की अधिष्ठात्री देवी एवं महादेवी हो; तुम्हें पुनः पुनः प्रणाम है।
शस्याधिष्ठातृदेव्यै च शस्यायै च नमो नमः।
नमो बुद्धिस्वरूपायै बुद्धिदायै नमो नमः ॥6॥
शस्य (धान्य/अन्न) की अधिष्ठात्री देवी एवं शस्यस्वरूपा को बारंबार नमस्कार है। बुद्धिस्वरूपा एवं बुद्धिप्रदा भगवती के लिए अनेकशः प्रणाम है।
वैकुण्ठे या महालक्ष्मीर्या लक्ष्मीः क्षीरसागरे।
स्वर्गलक्ष्मीरिन्द्रगेहे राजलक्ष्मीर्नृपालये ॥7॥
गृहलक्ष्मीश्च गृहिणां गेहे च गृहदेवता ।
सुरभिः सा गवां माता दक्षिणा यज्ञकामिनी ॥8॥
देवि ! तुम वैकुण्ठ में महालक्ष्मी, क्षीरसागर में लक्ष्मी, राजाओं के भवन में राजलक्ष्मी, इन्द्र के स्वर्ग में स्वर्गलक्ष्मी, गृहस्थों के घर में गृहलक्ष्मी, प्रत्येक घर में गृहदेवता, गोमाता सुरभि और यज्ञ की पत्नी दक्षिणा के रूप में विराजमान रहती हो।
अदितिर्देवमाता त्वं कमला कमलालये।
स्वाहां त्वं च हविर्दाने कव्यदाने स्वधा स्मृता ॥9॥
तुम देवताओं की माता अदिति हो। कमलालयवासिनी कमला भी तुम्हीं हो। हव्य प्रदान करते समय ‘स्वाहा’ और कव्य प्रदान करने के अवसर पर ‘स्वधा’ का जो उच्चारण होता है, वह तुम्हारा ही नाम है।
त्वं हि विष्णुस्वरूपा च सर्वाधारा वसुन्धरा।
शुद्धसत्त्वस्वरूपा त्वं नारायणपरायणा ॥10॥
सबको धारण करने वाली विष्णुस्वरूपा पृथ्वी तुम्हीं हो। भगवान् नारायण की उपासना में सदा तत्पर रहने वाली देवि ! तुम शुद्ध सत्त्वस्वरूपा हो।
क्रोधहिंसावर्जिता च वरदा च शुभानना।
परमार्थप्रदा त्वं च हरिदास्यप्रदापरा ॥11॥
तुममें क्रोध और हिंसा के लिए किञ्चिन्मात्र भी स्थान नहीं है। तुम्हें वरदा, शारदा, शुभा, परमार्थदा एवं हरिदास्यप्रदा कहते हैं।
यया विना जगत् सर्वं भस्मीभूतमसारकम्।
जीवन्मृतं च विश्वं च शवतुल्यं यया विना ॥12॥
तुम्हारे बिना सारा जगत भस्मीभूत एवं निःसार है। जीते-जी ही मृतक है, शव के तुल्य है।
सर्वेषां च परा त्वं हि सर्वबान्धवरूपिणी।
यया विना न सम्भाष्यो बान्धवैर्बान्धवः सदा ॥13॥
तुम सम्पूर्ण प्राणियों की श्रेष्ठ माता हो। सबके बान्धव रूप में तुम्हारा ही पधारना हुआ है। तुम्हारे बिना भाई भी भाई-बंधुओं के लिए बात करने योग्य भी नहीं रहता है।
त्वया हीनो बन्धुहीनस्त्वया युक्तः सबान्धवः।
धर्मार्थकाममोक्षाणां त्वं च कारणरूपिणी ॥14॥
जो तुमसे हीन है, वह बंधुजनों हीन है तथा जो तुमसे युक्त है, वह बंधुजनों से भी युक्त है। तुम्हारी ही कृपा से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्त होते हैं।
यथा माता स्तनन्धानां शिशूनां शैशवे सदा।
तथा त्वं सर्वदा माता सर्वेषां सर्वरूपतः ॥15॥
जिस प्रकार बचपन में दुधमुँहे बच्चों के लिए माता है, वैसे ही तुम अखिल जगत की जननी होकर सबकी सभी अभिलाषायें पूर्ण किया करती हो।
मातृहीनः स्तनत्यक्तः स चेज्जीवति दैवतः।
त्वया हीनो जनः कोऽपि न जीवत्येव निश्चितम् ॥16॥
स्तनपायी बालक माता के न रहने पर भाग्यवश जी भी सकता है; परन्तु तुम्हारे बिना कोई भी नहीं जी सकता। यह बिल्कुल निश्चित है।
सुप्रसन्नस्वरूपा त्वं मां प्रसन्ना भवाम्बिके।
वैरिग्रस्तं च विषयं देहि मह्यं सनातनि ॥17॥
अम्बिके ! सदा प्रसन्न रहना तुम्हारा स्वाभाविक गुण है। अतः मुझ पर प्रसन्न हो जाओ। सनातनी ! मेरा राज्य शत्रुओं के हाथ में चला गया है, तुम्हारी कृपा से वह मुझे पुनः प्राप्त हो जाये।
वयं यावत् त्वया हीना बन्धुहीनाश्च भिक्षुकाः।
सर्वसंपद्विहीनाश्च तावदेव हरिप्रिये ॥18॥
हरिप्रिये ! मुझे जब तक तुम्हारा दर्शन नहीं मिला था, तभी तक मैं बंधुहीन, भिक्षुक तथा सम्पूर्ण सम्पत्तियों से शून्य था।
राज्यं देहि श्रियं देहि बलं देहि सुरेश्वरि।
कीर्तिं देहि धनं देहि यशो मह्यं च देहि वै ॥19॥
सुरेश्वरि ! अब तो मुझे राज्य दो, श्री दो, बल दो, कीर्ति दो, धन दो और यश भी प्रदान करो।
कामं देहि मतिं देहि भोगान् देहि हरिप्रिये।
ज्ञानं देहि च धर्मं च सर्वसौभाग्यमीप्सितम् ॥20॥
हरिप्रिये ! मनोवाञ्छित वस्तुएँ दो, बुद्धि दो, भोग दो, ज्ञान दो, धर्म दो तथा सम्पूर्ण अभिलषित सौभाग्य दो।
प्रभावं च प्रतापं च सर्वाधिकारमेव च।
जयं पराक्रमं युद्धे परमैश्वर्यमेव च ॥21॥
इसके सिवा मुझे प्रभाव, प्रताप, सम्पूर्ण अधिकार, युद्ध में विजय, पराक्रम तथा परम ऐश्वर्य की प्राप्ति भी कराओ।
॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराणे इन्द्रकृतं लक्ष्मीस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
इस प्रकार श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण में वर्णित इंद्र विरचित लक्ष्मी स्तोत्र पूरा होता है।
Shri Sooktam / Lakshmi Sooktam | श्री सूक्तम् / लक्ष्मी सूक्तम्
देवी के अर्चन में ‘श्रीसूक्त’ की अतिशय मान्यता है। विशेषकर भगवती लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए ‘श्रीसूक्त’ के पाठ की विशेष महिमा बतायी गयी है। ऐश्वर्य एवं समृद्धि की कामना से इस सूक्त के मंत्रों का जप तथा इन मंत्रों से हवन, पूजन अभीष्टदायक होता है।
ॐ हिरण्यवर्णां हरिणीं सुवर्णरजतस्रजाम्।
चन्द्रां हिरण्यमयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आ वह॥1॥
हे जातवेदा (सर्वज्ञ) अग्निदेव ! आप सुवर्ण के समान रंगवाली, किंचित हरितवर्ण विशिष्टा, सोने और चांदी के हार पहनने वाली, चंद्रवत प्रसन्नकान्ति, स्वर्णमयी लक्ष्मी देवी का मेरे लिए आवाहन करें।
तां म आ वह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम्।
यस्यां हिरण्यं विन्देयं गामश्वं पुरुषानहम् ॥2॥
हे अग्ने ! उन लक्ष्मी देवी का, जिनका कभी विनाश नहीं होता तथा जिनके आगमन से मैं सोना, गौ, घोड़े तथा पुत्रादि को प्राप्त करूँगा, मेरे लिए आवाहन करें।
अश्वपूर्वां रथमध्यां हस्तिनादप्रमोदिनीम्।
श्रियं देवीमुप ह्वये श्रीर्मा देवी जुषताम् ॥3॥
जिन देवी के आगे घोड़े तथा उनके पीछे रथ रहते हैं तथा जो हस्तिनाद को सुनकर प्रमुदित होती हैं, उन्हीं श्रीदेवी का मैं आवाहन करता हूँ; लक्ष्मीदेवी मुझे प्राप्त हों।
कां सोस्मितां हिरण्यप्राकारमार्द्रां
ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीम्।
पद्मेस्थितां पद्मवर्णाम्
तामिहोप ह्वये श्रियम् ॥4॥
जो साक्षात् ब्रह्मरूपा, मन्द-मन्द मुस्कराने वाली, सोने के आवरण से आवृत, दयार्द्र, तेजोमयी, पूर्णकामा, भक्तानुग्रहकारिणी, कमल के आसन पर विराजमान तथा पद्मवर्णा हैं, उन लक्ष्मीदेवी का मैं यहाँ आवाहन करता/करती हूँ।
चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं
श्रियं लोके देवजुष्टामुदाराम् ।
तां पद्मिनीमीं शरणं प्रपद्ये
अलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणे ॥5॥
मैं चंद्र के समान शुभ्र कान्ति वाली, सुन्दर द्युतिशालिनी, यश से दीप्तिमती, स्वर्गलोक में देवगणों के द्वारा पूजिता, उदारशीला, पद्महस्ता लक्ष्मी देवी की शरण लेता/लेती हूँ। मेरा दारिद्र्य दूर हो जाये। मैं आपको शरण्य के रूप में वरण करता/करती हूँ।
आदित्यवर्णे तपसोऽधि जातो
वनस्पतिस्तव वृक्षोऽथ बिल्वः।
तस्य फलानि तपसा नुदन्तु
या अन्तरा याश्च बाह्या अलक्ष्मीः ॥6॥
हे सूर्य के समान प्रकाशस्वरूपे ! आपके ही तप से वृक्षों में श्रेष्ठ मंगलमय बिल्ववृक्ष उत्पन्न हुआ। उसके फल आपके अनुग्रह से हमारे बाहरी और भीतरी दारिद्र्य को दूर करें।
उपैतु मां देवसखः कीर्तिश्च मणिना सह।
प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन् कीर्तिमृद्धिं ददातु मे ॥7॥
हे देवि ! देवसखा कुबेर और उनके मित्र मणिभद्र तथा दक्ष प्रजापति की कन्या कीर्ति मुझे प्राप्त हों, अर्थात् मुझे धन और यश की प्राप्ति हो। मैं इस देश में उत्पन्न हुआ हूँ, मुझे कीर्ति और ऋद्धि प्रदान करें।
क्षुत्पिपासामलां नाशयाम्यहम्।
अभूतिमसमृद्धिं च सर्वां निर्णुद मे गृहात् ॥8॥
लक्ष्मी की ज्येष्ठ बहन अलक्ष्मी (दरिद्रता की अधिष्ठात्री देवी) – का जो क्षुधा और पिपासा से मलिन – क्षीणकाय रहती हैं, मैं नाश चाहता हूँ। देवि ! मेरे घर से सब प्रकार के दारिद्र्य और अमंगल को दूर करो।
गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम्।
ईश्वरीं सर्वभूतानां तामिहोप ह्वये श्रियम् ॥9॥
सुगन्धित जिनका प्रवेशद्वार है, जो दुराधर्षा और तथा नित्यपुष्टा हैं और जो गोमय के बीच निवास करती हैं, सब जीवों की स्वामिनी उन लक्ष्मीदेवी का मैं अपने घर में आवाहन करता/करती हूँ।
मनसः काममाकूतिं वाचः सत्यमशीमहि।
पशूनां रूपमन्नस्य मयि श्रीः श्रयतां यशः ॥10॥
मन के कामनाओं और संकल्प की सिद्धि एवं वाणी की सत्यता मुझे प्राप्त हो; गौ आदि पशुओं एवं विभिन्न अन्नों – भोग्य पदार्थों के रूप में तथा यश के रूप में श्रीदेवी हमारे यहाँ आगमन करें।
कर्दमेन प्रजा भूता मयि संभव कर्दम।
श्रियं वासय मे कुले मातरं पद्ममालिनीम् ॥11॥
लक्ष्मी के पुत्र कर्दम की हम संतान हैं। कर्दम ऋषि ! आप हमारे यहाँ उत्पन्न हों तथा पद्मों की माला धारण करने वाली माता लक्ष्मीदेवी को हमारे कुल में स्थापित करें।
आपः सृजन्तु स्निग्धानि चिक्लीत वस मे गृहे ।
नि च देवीं मातरं श्रियं वासय मे कुले ॥12॥
जल स्निग्ध पदार्थों की सृष्टि करे। लक्ष्मीपुत्र चिक्लीत ! आप भी मेरे घर में वास करें और माता लक्ष्मीदेवी का मेरे कुल में निवास करायें।
आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टिं पिङ्गलां पद्ममालिनीम् ।
चन्द्रां हिरण्यमयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आ वह ॥13॥
हे अग्ने ! आर्द्रस्वभावा, कमलहस्ता, पुष्टिरूपा, पीतवर्णा, कमल की माला धारण करने वाली, चन्द्रमा के समान शुभ्र-कान्ति से युक्त, स्वर्णमयी लक्ष्मी देवी का मेरे यहाँ आवाहन करें।
आर्द्रां यः करिणीं यष्टिं सुवर्णां हेममालिनीम् ।
सूर्यां हिरण्यमयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आ वह ॥14॥
हे अग्ने ! जो दुष्टों का निग्रह करने वाली होने पर भी कोमल स्वभाव की हैं, जो मंगलदायिनी, अवलम्बन प्रदान करने वाली यष्टिरूपा, सुन्दर वर्णवाली, सुवर्ण माला धारिणी, सूर्यस्वरूपा तथा हिरण्यमयी हैं, उन लक्ष्मीदेवी का मेरे लिए आवाहन करें।
तां म आ वह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम् ।
यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्योऽश्वान् विन्देयं पुरुषानहम् ॥15॥
हे अग्ने ! कभी नष्ट न होने वाली उन लक्ष्मी देवी का मेरे लिए आवाहन करें, जिनके आगमन से बहुत-सा धन, गौएँ, दासियाँ, अश्व और पुत्रादि हमें प्राप्त हों।
यः शुचिः प्रयतो भूत्वा जुहुयादाज्यमन्वहम्।
सूक्तं पञ्चदशर्चं च श्रीकामः सततं जपेत् ॥16॥
जिसे लक्ष्मी की कामना हो, वह प्रतिदिन पवित्र और संयमशील होकर अग्नि में घी की आहुतियाँ दे तथा इन पंद्रह ऋचाओं वाले श्रीसूक्त का नियमित पाठ करे।
पद्मानने पद्मविपद्मपत्रे पद्मप्रिये पद्मदलायताक्षि ।
विश्वप्रिये विष्णुमनोऽनुकूले त्वत्पादपद्मं मयि सं नि धत्स्व ॥17॥
कमल-सदृश मुख वाली ! कमल-दल पर अपने चरणकमल रखने वाली ! कमल में प्रीति रखने वाली ! कमल-दल के समान विशाल नेत्रों वाली ! समग्र संसार के लिए प्रिय ! भगवान विष्णु के मन के अनुकूल आचरण करने वाली ! आप अपने चरणकमल को मेरे ह्रदय में स्थापित करें।
पद्मानने पद्मऊरू पद्माक्षि पद्मसम्भवे।
तन्मे भजसि पद्माक्षि येन सौख्यं लभाम्यहम् ॥18॥
हे लक्ष्मी देवी! आपका श्रीमुख, ऊरु भाग, नेत्र आदि कमल के समान हैं। आपकी उत्पत्ति कमल से हुई है। हे पद्माक्षी ! आप उसी प्रकार मेरा पालन करें, जिससे मुझे सुख प्राप्त हो।
अश्वदायि गोदायि धनदायि महाधने।
धनं मे जुषतां देवि सर्वांकामांश्च देहि मे ॥19॥
अश्वदायिनि, गोदायिनि, धनदायिनि, महाधनस्वरूपिणी हे देवि ! मेरे पास सदा धन रहे, मेरी सभी कामनाओं को आप पूर्ण करें।
पुत्रपौत्रधनं धान्यं हस्त्यश्वाश्वतरी रथम्।
प्रजानां भवसि माता आयुष्मंतं करोतु मे ॥20॥
आप सृष्टि के समस्त जीवों की माता हैं। मेरे पुत्र, पौत्र, धन, धान्य, हाथी, घोड़े, खच्चर तथा रथ को दीर्घ आयु से सम्पन्न करें।
धनमग्निर्धनं वायुर्धनं सूर्यो धनं वसुः।
धनमिन्द्रो बृहस्पतिर्वरुणो धनमश्विना ॥21॥
अग्नि, वायु, सूर्य, वसुगण, इंद्र, बृहस्पति, वरुण तथा अश्विनीकुमार – ये सब वैभव स्वरूप हैं।
वैनतेय सोमं पिब सोमं पिबतु वृत्रहा।
सोमं धनस्य सोमिनो मह्यं ददातु सोमिनः ॥22॥
हे गरुड़ ! आप अमृत पान करें। वृत्रासुर के विनाशक इन्द्र अमृत पान करें। वे गरुड़ तथा इन्द्र मुझ अमृत पान की अभिलाषा वाले को धनवान एवं अमृत-अभिलाषी का अमृत प्रदान करें।
न क्रोधो न च मात्सर्यं न लोभो नाशुभा मतिः।
भवन्ति कृतपुण्यानां भक्त्या श्रीसूक्त जापिनाम् ॥23॥
भक्तिपूर्वक श्रीसूक्त का जप करने वाले, पुण्यशाली लोगों को न क्रोध होता है, न ईर्ष्या होती है, न लोभ ग्रसित कर सकता है और न ही उनकी बुद्धि दूषित ही होती है।
सरसिजनिलये सरोजहस्ते धवलतरांशुक गन्धमाल्यशोभे।
भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे त्रिभुवनभूतिकरी प्रसीद मह्यम् ॥24॥
कमलवासिनी, हाथ में कमल धारण करने वाली, अत्यन्त धवल वस्त्र, गन्धानुलेप तथा पुष्पहार से सुशोभित होने वाली, भगवान विष्णु की प्रिया, सबके मन की जानने वाली तथा त्रिलोकी को ऐश्वर्य प्रदान करने वाली हे भगवति ! मुझपर प्रसन्न होइये।
विष्णुपत्नीं क्षमां देवीं माधवीं माधवप्रियाम्।
लक्ष्मीं प्रियसखीं भूमिं नमाम्यच्युतवल्लभाम् ॥25॥
भगवान विष्णु की भार्या, क्षमास्वरूपिणी, माधवी, माधवप्रिया, प्रियसखी, अच्युतवल्लभा, भूदेवी भगवती लक्ष्मी मैं नमस्कार करता/करती हूँ।
महादेव्यै च विद्महे विष्णुपत्न्यै च धीमहि।
तन्नो लक्ष्मीः प्रचोदयात् ॥26॥
हम विष्णुपत्नी महालक्ष्मी को जानते हैं तथा उनका ध्यान करते हैं। वे लक्ष्मीजी सन्मार्ग पर चलने हेतु हमें प्रेरणा प्रदान करें।
आनन्दः कर्दमः श्रीदश्चिक्लीत इति विश्रुताः।
ऋषयः श्रियः पुत्राश्च श्रीर्देवीर्देवता मताः ॥27॥
पूर्व कल्प में जो आनन्द, कर्दम, श्रीद और चिक्लीत नामक विख्यात चार ऋषि हुए थे। उसी नाम से दूसरे कल्प में भी वे ही सब लक्ष्मी के पुत्र हुए। बाद में उन्हीं पुत्रों से महालक्ष्मी अति प्रकाशमान शरीर वाली हुईं। उन्हीं महालक्ष्मी से देवता भी अनुगृहीत हुए।
ऋणरोगादिदारिद्र्यपापक्षुदपमृत्यवः।
भयशोकमनस्तापा नश्यन्तु मम सर्वदा ॥28॥
ऋण, रोग, दरिद्रता, पाप, क्षुधा, अपमृत्यु, भय, शोक तथा मानसिक ताप आदि – ये सभी मेरी बाधायें सदा के लिए नष्ट हो जाएँ।
श्रीर्वर्चस्वमायुष्यमारोग्यमाविधाच्छोभमानं महीयते।
धनं धान्यं पशुं बहुपुत्रलाभं शतसंवत्सरं दीर्घमायुः ॥29॥
भगवती महालक्ष्मी मनुष्य के लिए ओज, आयुष्य, आरोग्य, धन-धान्य, पशु, अनेक पुत्रों की प्राप्ति तथा सौ वर्ष के दीर्घ जीवन का विधान करें और वह इनसे मण्डित होकर प्रतिष्ठा प्राप्त करे।
॥ इति श्रीलक्ष्मीसूक्तं संपूर्णम् ॥
इस प्रकार श्रीलक्ष्मी सूक्त पूरा होता है।