(स्रोत – श्रीरामचरितमानस, अरण्यकाण्ड)
नमामि भक्तवत्सलं कृपालु शील कोमलं ।
भजामि ते पदांबुजं अकामिनां स्वधामदं ॥ 1 ॥
हे भक्तवत्सल ! हे कृपालु ! हे कोमल स्वभाव वाले ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ । निष्काम पुरुषों को अपना परमधाम देनेवाले आपके चरणकमलों को मैं भजता हूँ ।
निकाम श्याम सुन्दरं भवांबुनाथ मंदरं ।
प्रफुल्ल कंज लोचनं मदादि दोष मोचनं ॥ 2 ॥
आप नितान्त सुन्दर श्याम, संसार (आवागमन) रुपी समुद्र को मथने के लिए मंदराचल रूप, फूले हुए कमल के समान नेत्रों वाले और मद आदि दोषों से छुड़ाने वाले हैं ।
प्रलंब बाहु विक्रमं प्रभोप्रमेय वैभवं ।
निषंग चाप सायकं धरं त्रिलोक नायकं ॥ 3 ॥
हे प्रभो ! आपकी लंबी भुजाओं का पराक्रम और आपका ऐश्वर्य अप्रमेय (असीम) है। आप तरकस और धनुष-बाण धारण करने वाले तीनों लोकों के स्वामी,
दिनेश वंश मंडनं महेश चाप खंडनं ।
मुनींद्र संत रंजनं सुरारि वृंद भंजनं ॥ 4 ॥
सूर्यवंश के भूषण, महादेवजी के धनुष को तोड़ने वाले, मुनिराजों और संतों को आनंद देने वाले तथा देवताओं के शत्रु असुरों के समूह का नाश करने वाले हैं ।
मनोज वैरि वंदितं अजादि देव सेवितं ।
विशुद्ध बोध विग्रहं समस्त दूषणापहं ॥ 5 ॥
आप कामदेव शत्रु महादेवजी के द्वारा वन्दित, ब्रह्मा आदि देवताओं से सेवित, विशुद्ध ज्ञानमय विग्रह और समस्त दोषों को नष्ट करने वाले हैं ।
नमामि इंदिरा पतिं सुखाकरं सतां गतिं ।
भजे सशक्ति सानुजं शची पति प्रियानुजं ॥ 6 ॥
हे लक्ष्मीपते ! हे सुखों की खान सत्पुरुषों की एकमात्र गति ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ । हे शचीपति (इंद्र) के प्रिय छोटे भाई (वामनजी) ! स्वरूपा-शक्ति श्रीसीताजी और छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित आपको मैं भजता हूँ ।
त्वदंघ्रि मूल ये नराः भजंति हीन मत्सराः ।
पतंति नो भवार्णवे वितर्क वीचि संकुले ॥ 7 ॥
जो मनुष्य मत्सर (डाह) रहित होकर आपके चरणकमलों का सेवन करते हैं, वे तर्क-वितर्क (अनेक प्रकार के संदेह) रुपी तरंगों से पूर्ण संसार रुपी समुद्र में नहीं गिरते (आवागमन के चक्कर में नहीं पड़ते) ।
विविक्त वासिनः सदा भजंति मुक्तये मुदा ।
निरस्य इंद्रियादिकं प्रयांति ते गतिं स्वकं ॥ 8 ॥
जो एकांतवासी पुरुष मुक्ति के लिए, इन्द्रियादि का निग्रह करके (उन्हें विषयों से हटाकर) प्रसन्नतापूर्वक आपको भजते हैं, वे स्वकीय गति (अपने स्वरुप) को प्राप्त होते हैं।
तमेकमद्भुतं प्रभुं निरीहमीश्वरं विभुं ।
जगद्गुरुं च शाश्वतं तुरीयमेव केवलं ॥ 9 ॥
उन (आप) को जो एक (अद्वितीय), अद्भुत (मायिक जगत से विलक्षण), प्रभु (सर्वसमर्थ), इच्छारहित, ईश्वर (सबके स्वामी), व्यापक, जगद्गुरु, सनातन (नित्य), तुरीय (तीनों गुणों से सर्वथा परे) और केवल (अपने स्वरुप में स्थित) हैं।
भजामि भाव वल्लभं कुयोगिनां सुदुर्लभं ।
स्वभक्त कल्प पादपं समं सुसेव्यमन्वहं ॥ 10 ॥
(तथा) जो भावप्रिय, कुयोगियों (विषयी पुरुषों) के लिए अत्यन्त दुर्लभ, अपने भक्तों के लिए कल्पवृक्ष (उनकी समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाले), सम (पक्षपात रहित) और सदा सुखपूर्वक सेवन करने योग्य हैं, मैं निरन्तर भजता हूँ।
अनूप रूप भूपतिं नतोहमुर्विजा पतिं ।
प्रसीद मे नमामि ते पदाब्ज भक्ति देहि मे ॥ 11 ॥
हे अनुपम सुन्दर ! हे पृथ्वीपति ! हे जानकीनाथ ! मैं आपको प्रणाम करता हूँ। मुझपर प्रसन्न होइये, मैं आपको नमस्कार करता हूँ। मुझे अपने चरणकमलों की भक्ति दीजिये।
पठन्ति ये स्तवं इदं नरादरेण ते पदं ।
व्रजंति नात्र संशयं त्वदीय भक्ति संयुताः ॥ 12 ॥
जो मनुष्य इस स्तुति को आदरपूर्वक पढ़ते हैं, वे आपकी भक्ति से युक्त होकर आपके परमपद को प्राप्त होते हैं, इसमें संदेह नहीं।