या देवी सर्वभूतेषु विद्यारूपेण संस्थिता नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥
जो देवी सभी जीवों में विद्या रूप से स्थित रहती हैं, उन (सरस्वती माता) को बारम्बार नमन है।
Many salutations to the Goddess (Saraswati) who resides in the form of knowledge in all living beings.
Contents
ToggleSaraswati Stotram – Ya kundedutusharhardhavala … | सरस्वती स्तोत्रम् - या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता
या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता
या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।
या ब्रह्माच्युतशंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता
सा मां पातु सरस्वति भगवती निःशेषजाड्यापहा ॥१॥
जो कुन्द के फूल, चन्द्रमा, बर्फ और मोती के हार के समान श्वेत हैं, जो शुभ्र वस्त्र पहनती हैं, जिनके हाथ उत्तम वीणा से सुशोभित हैं, जो श्वेत कमल आसन पर बैठती हैं, ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि देव जिनकी सदा स्तुति करते हैं और जो सब प्रकार की जड़ता(अज्ञानता) हर लेती हैं, वे भगवती सरस्वती मेरा पालन करें।
Who is as white as the Jasmine flower, the moon, the snow and a pearl necklace, who wears pure white clothes, whose hands are adorned with the best veena (a stringed musical instrument), who sits on a white lotus, who is always adored by Lord Brahma, Lord Vishnu, Lord Shankar and other gods and who removes all types of inertia (ignorance), May that Goddess Saraswati protect me.
आशासु राशीभवदङ्गवल्लीभासैव दासीकृतदुग्धसिन्धुम्।
मन्दस्मितैर्निन्दितशारदेन्दुं वन्देऽरविन्दासनसुन्दरि त्वाम् ॥२॥
हे कमल पर बैठने वाली सुंदरी सरस्वती! तुम सब दिशाओं में विस्तृत अपनी देहलता की आभा से ही क्षीर-समुद्र को दास बनाने वाली और मंद मुस्कान से शरद-ऋतु के चन्द्रमा को तिरस्कृत करने वाली हो, मैं तुम्हें प्रणाम करता/करती हूँ।
O beautiful Saraswati who sits on a lotus! You are the one whose bright aura spread in all directions makes the milky ocean inferior and whose gentle smile despises the autumn moon, I salute you.
शारदा शारदाम्भोजवदना वदनाम्बुजे।
सर्वदा सर्वदास्माकं सन्निधिं सन्निधिं क्रियात् ॥३॥
शरत्काल में उत्पन्न कमल के समान मुखवाली और सब मनोरथों को देने वाली शारदा सब सम्पत्तियों के साथ हमारे मुख में सदा निवास करें।
May Sharda, who has a face like a lotus born in autumn and who grants all the desires, always reside in our mouth with all the wealth.
सरस्वतीं च तां नौमि वागधिष्ठातृदेवताम्।
देवत्वं प्रतिपद्यन्ते यदनुग्रहतो जनाः ॥४॥
उन वाणी की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती को नमन करता/करती हूँ जिनकी कृपा से मनुष्य देवता बन जाता है।
I bow to that Goddess Saraswati, the presiding deity of speech, by whose grace a human becomes divine.
पातु नो निकषग्रावा मतिहेम्नः सरस्वती।
प्राज्ञेतरपरिच्छेदं वचसैव करोति या ॥५॥
बुद्धिरूपी सोने के लिए कसौटी के समान सरस्वतीजी, जो केवल वचन से ही विद्वान् और मूर्खों की परीक्षा कर देती हैं, हमलोगों का पालन करें।
May Goddess Saraswati, who is like a touchstone for the gold of intellect and who tests scholars and fools with just her words, protect us.
शुक्लां ब्रह्मविचारसारपरमामाद्यां जगद्व्यापिनीं
वीणापुस्तकधारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम्।
हस्ते स्फटिकमालिकां च दधतीं पद्मासने संस्थितां
वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम् ॥६॥
जिनका रूप श्वेत है, जो ब्रह्मविचार की परम तत्व हैं, जिनकी चेतना समस्त संसार में व्याप्त है, जो हाथों में वीणा और पुस्तक धारण किये रहती हैं, अभय देती हैं, अज्ञान रूपी अन्धकार को दूर करती हैं, हाथ में स्फटिकमणि की माला लिए रहती हैं, कमल के आसन पर विराजमान होती हैं और बुद्धि देनेवाली हैं, उन आद्या परमेश्वरी भगवती शारदा की मैं वन्दना करता/करती हूँ।
Whose form is white, who is the supreme essence of the knowledge of Brahman , whose consciousness is present in the entire world, who holds a veena (a stringed musical instrument) and a book in her hands, who gives fearlessness, removes the darkness of ignorance, has a rosary of crystal beads in her hand, sits on a lotus and gives wisdom, I worship that primeval supreme goddess Sharada.
वीणाधरे विपुलमङ्गलदानशीले भक्तार्तिनाशिनि विरञ्चिहरीशवन्द्ये।
कीर्तिप्रदेऽखिलमनोरथदे महार्हे विद्याप्रदायिनि सरस्वति नौमि नित्यम् ॥७॥
हे वीणा धारण करने वाली, अपार मंगल देने वाली, भक्तों के दुःख छुड़ाने वाली, ब्रह्मा, विष्णु और शिव से वन्दित होने वाली, कीर्ति, मनोरथ और विद्या देनेवाली पूज्यवरा सरस्वती ! तुमको नित्य प्रणाम करता हूँ।
O giver of knowledge Saraswati, the one who holds the Veena, the giver of immense auspiciousness, the one who relieves the sorrows of the devotees, the one who is worshiped by Brahma, Vishnu and Shiva, the giver of fame, wishes and knowledge! I salute you daily.
श्वेताब्जपूर्णविमलासनसंस्थिते हे श्वेताम्बरावृतमनोहरमञ्जुगात्रे।
उद्यन्मनोज्ञसितपङ्कजमञ्जुलास्ये विद्याप्रदायिनि सरस्वति नौमि नित्यम् ॥८॥
हे श्वेत कमलों से भरे हुए निर्मल आसन पर विराजने वाली, श्वेत वस्त्रों से ढके सुन्दर शरीर वाली, खिले हुए सुन्दर श्वेत कमल के समान मंजुल मुख वाली और विद्या देनेवाली सरस्वती ! तुमको नित्य प्रणाम करता/करती हूँ।
O Saraswati, who sits on a pure seat full of white lotuses, with a beautiful body covered in white clothes, with a face as sweet as a beautiful white lotus in bloom and the giver of knowledge! I salute you daily.
मातस्त्वदीयपदपङ्कजभक्तियुक्ता ये त्वां भजन्ति निखिलानपरान्विहाय।
ते निर्जरत्वमिह यान्ति कलेवरेण भूवह्निवायुगगनाम्बुविनिर्मितेन ॥९॥
हे मातः ! जो अन्य सभी देवताओं को छोड़कर तुम्हारे चरण-कमलों में भक्तिपूर्वक तुम्हारा भजन करते हैं, वे पृथ्वी, अग्नि, वायु, आकाश और जल – इन पाँच तत्त्वों के बने शरीर से ही देवता बन जाते हैं।
Hey mother! Those who worship you with devotion at your lotus feet, leaving aside all other gods, become gods even while being in a body made of the five elements – earth, fire, air, sky and water.
मोहान्धकारभरिते हृदये मदीये मातः सदैव कुरु वासमुदारभावे।
स्वीयाखिलावयवनिर्मलसुप्रभाभिः शीघ्रं विनाशय मनोगतमन्धकारम् ॥१०॥
हे उदार भाव वाली माँ ! मोहरूपी अन्धकार से भरे मेरे ह्रदय में सदा निवास करो और अपने सब अंगों की निर्मल कान्ति से मेरे मन के अंधकार का शीघ्र नाश करो।
O mother with generous heart! Always reside in my heart filled with darkness and destroy the darkness of my mind quickly with the pure glow of all your body organs.
ब्रह्मा जगत् सृजति पालयतीन्दिरेशः शम्भुर्विनाशयति देवि तव प्रभावैः।
न स्यात्कृपा यदि तव प्रकटप्रभावे न स्युः कथञ्चिदपि ते निजकार्यदक्षाः ॥११॥
हे देवी! तुम्हारे ही प्रभाव से ब्रह्मा जगत को बनाते हैं, विष्णु पालते हैं और शिव विनाश करते हैं; हे प्रकट प्रभावशाली! यदि तुम्हारी कृपा न हो तो वे किसी प्रकार अपना काम नहीं कर सकते।
O goddess! With your influence, Brahma creates the world, Vishnu sustains and Shiva destroys; O manifestly impressive! They cannot do their work without your grace.
लक्ष्मीर्मेधा धरा पुष्टिर्गौरी तुष्टिः प्रभा धृतिः।
एताभिः पाहि तनुभिरष्टाभिर्मां सरस्वति ॥१२॥
हे सरस्वती ! लक्ष्मी, मेधा, धरा, पुष्टि, गौरी, तुष्टि, प्रभा एवं धृति – इन आठ मूर्तियों (स्वरूपों) द्वारा मेरी रक्षा करो।
O Saraswati! protect me with these eight forms – Lakshmi, Medha, Dhara, Pushti, Gauri, Tushti, Prabha and Dhriti.
सरस्वत्यै नमो नित्यं भद्रकाल्यै नमो नमः।
वेदवेदान्तवेदाङ्गविद्यास्थानेभ्य एव च ॥१३॥
सरस्वती को नित्य नमस्कार है, भद्रकाली को नमस्कार है और वेद, वेदान्त, वेदांग तथा विद्या के स्थानों को प्रणाम है।
Salutations to Saraswati daily, salutations to Bhadrakali and salutations to the places of Veda, Vedanta, Vedanga and education.
सरस्वति महाभागे विद्ये कमललोचने।
विद्यारूपे विशालाक्षि विद्यां देहि नमोऽस्तु ते ॥१४॥
हे महाभाग्यवती, ज्ञानस्वरूपा, कमल के समान विशाल नेत्र वाली, ज्ञानदात्री, सरस्वती ! मुझे विद्या दो, मैं तुम्हें नमन करता/करती हूँ।
O the great fortunate one, embodiment of knowledge, with eyes as big as lotus and the giver of knowledge, Saraswati! Give me knowledge, I bow to you.
यदक्षरं पदं भ्रष्टं मात्राहीनं च यद्भवेत्।
तत्सर्वं क्षम्यतां देवि प्रसीद परमेश्वरि ॥१५॥
हे देवी! जो अक्षर, पद (शब्द) अथवा मात्रा छूट गयी हो, उसके लिए क्षमा करो और हे परमेश्वरी! प्रसन्न रहो।
O goddess! Forgive me for any letter, word or sign that has been left out, O Supreme goddess! Be happy.
॥ इति श्रीसरस्वतीस्तोत्रं सम्पूर्णम्॥
इस प्रकार श्री सरस्वती स्तोत्र पूरा होता है।
Thus ends the Saraswati Stotram.
Twelve names of Goddess Saraswati | श्रीसरस्वतीद्वादशनामस्तोत्रम्
सरस्वतीमहं वन्देवीणापुस्तकधारिणीम्।
हंसवाहसमायुक्तांविद्यादानकरीं मम॥1॥
वीणा और पुस्तक धारण करने वाली, हंस वाहन पर अवस्थित एवं मुझे विद्या प्रदान करने वाली माँ सरस्वती को मैं प्रणाम करता/करती हूँ।
प्रथमं भारती नामद्वितीयं च सरस्वती।
तृतीयं शारदा देवीचतुर्थं हंसवाहिनी॥2॥
हे देवी! आपका पहला नाम ‘भारती’, दूसरा ‘सरस्वती’, तीसरा ‘शारदा’ और चौथा ‘हंसवाहिनी’ है।
पञ्चमं जगति ख्याताषष्ठं वाणीश्वरी तथा।
कौमारी सप्तमं प्रोक्ता अष्टमं ब्रह्मचारिणी॥3॥
पाँचवा ‘जगति’, छठा ‘वाणीश्वरी’, सातवां ‘कौमारी’ तथा आठवां ‘ब्रह्मचारिणी’ है।
नवमं बुद्धिदात्री च दशमं वरदायिनी।
एकादशं क्षुद्रघण्टा द्वादशं भुवनेश्वरी॥4॥
नवां ‘बुद्धिदात्री’, दसवां ‘वरदायिनी’, ग्यारहवां ‘क्षुद्रघण्टा’ एवं बारहवां ‘भुवनेश्वरी’ है।
ब्राह्मी द्वादशनामानि त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नरः।
सर्वसिद्धिकरी तस्य प्रसन्ना परमेश्वरी।
जो मनुष्य ब्राह्मी (सरस्वती) के बारह नामों वाले इस स्तोत्र का त्रिकाल संध्या (दिन में तीन बार) पाठ करता है, परमेश्वरी माँ प्रसन्न होकर उसके सभी कार्यों को सफल करती हैं।
सा मे वसतु जिह्वाग्रे ब्रह्मरूपा सरस्वती॥5॥
वह ब्रह्म स्वरूपा सरस्वती मेरे जिह्वा पर (वाणी में) निवास करें।
॥ इति सरस्वतीद्वादशनामस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
इस प्रकार यह सरस्वती द्वादशनाम स्तोत्र पूरा होता है।
Sixteen names of Goddess Saraswati | श्रीसरस्वतीषोडशनामस्तोत्रम्
सरस्वत्याः प्रसादेन काव्यं कुर्वन्ति मानवाः।
तस्मान्निश्चल-भावेन पूजनीया सरस्वती ॥1॥
माँ सरस्वती की कृपा से सभी मनुष्य काव्य रचना करते हैं, इसलिए वह सरस्वती देवी निश्चल भाव से सदा पूजनीय हैं।
श्री सर्वज्ञ मुखोत्पन्ना भारती बहुभाषिणी।
अज्ञानतिमिरं हन्ति विद्या-बहुविकासिनी ॥2॥
हे भारती! तुम श्री सर्वज्ञ प्रभु के मुखकमल से उत्पन्न हुई हो, अनेक भाषाओं का स्वरूप हो, अज्ञान रूपी अंधकार को नष्ट करने वाली हो और विविध प्रकार की विद्याओं का विकास करने वाली हो।
सरस्वती मया दृष्टा दिव्या कमललोचना।
हंसस्कन्ध-समारूढ़ा वीणा-पुस्तक-धारिणी ॥3॥
मैंने ऐसी श्री सरस्वती देवी को देखा जिनके नेत्र कमल के समान दिव्य एवं सुन्दर हैं, जो हंस पर आरूढ़ हैं तथा जिन्होंने अपने हाथों में वीणा और पुस्तक धारण किये हुए हैं।
प्रथमं भारती नाम, द्वितीयं च सरस्वती।
तृतीयं शारदादेवी, चतुर्थ हंसगामिनी ॥4॥
पञ्चमं विदुषां माता, षष्ठं वागीश्वरी तथा।
कुमारी सप्तमं प्रोक्ता, अष्टमं ब्रह्मचारिणी ॥5॥
नवमं च जगन्माता, दशमं ब्राह्मिणी तथा।
एकादशं तु ब्रह्माणी, द्वादशं वरदा भवेत् ॥6॥
वाणी त्रयोदशं नाम, भाषा चैव चतुर्दशं।
पञ्चदशं श्रुतदेवी च, षोडशं गौर्निगद्यते ॥7॥
देवी सरस्वती का पहला नाम ‘भारती’, दूसरा ‘सरस्वती’, तीसरा ‘शारदा देवी’, चौथा ‘हंसगामिनी’, पाँचवां ‘विदुषां माता (विद्वान जनों की माता)’, छठा ‘वागीश्वरी’, सातवां ‘कुमारी’, आठवां ‘ब्रह्मचारिणी’, नवां ‘जगन्माता’, दसवां ‘ब्राह्मिणी’, ग्यारहवां ‘ब्रह्माणी’, बारहवां ‘वरदा’, तेरहवां ‘वाणी’, चौदहवां ‘भाषा’, पन्द्रहवां ‘श्रुतदेवी’ और सोलहवां ‘गौ’- इस प्रकार माँ सरस्वती के ये सारे नाम हैं।
एतानि श्रुतनामानि प्रातरूत्थाय यः पठेत्।
तस्य संतुष्यदि माता शारदा वरदा भवेत् ॥8॥
माँ शारदा के उपर्युक्त नामों का जो मनुष्य प्रातः उठकर पाठ करता है, उसके ऊपर माता संतुष्ट होती हैं और उसके सभी मनोरथों को पूर्ण करती हैं।
॥ इति श्री सरस्वती षोडशनाम स्तोत्रम्॥
इस प्रकार यह सरस्वती षोडशनाम स्तोत्र पूरा होता है।
Saraswati Stotram by Sage Agastya | महर्षि अगस्त्य कृत सरस्वती स्तोत्रम्
या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता
या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।
या ब्रह्माच्युतशंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता
सा मां पातु सरस्वति भगवती निःशेषजाड्यापहा ॥१॥
जो कुन्द के फूल, चन्द्रमा, बर्फ और मोती के हार के समान श्वेत हैं, जो शुभ्र वस्त्र पहनती हैं, जिनके हाथ उत्तम वीणा से सुशोभित हैं, जो श्वेत कमल आसन पर बैठती हैं, ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि देव जिनकी सदा स्तुति करते हैं और जो सब प्रकार की जड़ता हर लेती हैं, वे भगवती सरस्वती मेरा पालन करें।
Who is as white as the Jasmine flower, the moon, the snow and a pearl necklace, who wears pure white clothes, whose hands are adorned with the best veena (a stringed musical instrument), who sits on a white lotus, who is always adored by Lord Brahma, Lord Vishnu, Lord Shankar and other gods and who removes all types of inertia, May that Goddess Saraswati protect me.
दोर्भिर्युक्ता चतुर्भिः स्फटिकमणिमयीमक्षमालां दधाना
हस्तेनैकेन पद्मं सितमपि च शुकं पुस्तकं चापरेण ।
भासा कुन्देन्दुशङ्खस्फटिकमणिनिभा भासमानासमाना
सा मे वाग्देवतेयं निवसतु वदने सर्वदा सुप्रसन्ना ॥२॥
जो चार हाथों से सुशोभित हैं और उन हाथों में स्फटिक मणि की बनी हुई अक्षमाला, श्वेत कमल, शुक तथा पुस्तक धारण किये हैं, जो कुन्द पुष्प, चन्द्रमा, शंख और स्फटिक मणि के समान अद्वितीय रूप से देदीप्यमान हैं, वे ही वाणी की देवी सरस्वती परम प्रसन्न होकर सदा मेरे मुख में (जिह्वा पर) निवास करें।
Adorned with four hands and holding a rosary of crystal beads, a white lotus, a parrot and a book in those hands, shining uniquely like jasmine, moon, conch and a crystal, May Saraswati, the goddess of speech, be pleased and always reside in my mouth (tongue).
सुरासुरसेवितपादपङ्कजा करे विराजत्कमनीयपुस्तका ।
विरञ्चिपत्नी कमलासनस्थिता सरस्वती नृत्यतु वाचि मे सदा ॥३॥
जिनके चरण कमलों की पूजा देवता और असुर करते हैं, जो हाथ में सुंदर पुस्तक रखती हैं, ब्रह्मा की पत्नी हैं और कमल पर विराजमान हैं, वह माता सरस्वती सदैव मेरी वाणी पर नृत्य करती रहें।
Whose lotus feet are worshipped by gods and demons, who holds a lovely book in her hands, is the wife of Brahma and sits on a lotus, may that mother Saraswati always dance on my words.
सरस्वती सरसिजकेसरप्रभा
तपस्विनी सितकमलासनप्रिया ।
घनस्तनी कमलविलोललोचना
मनस्विनी भवतु वरप्रसादिनी ॥४॥
जिनकी कान्ति कमल फूल के समान है, जो तपस्विनी हैं, श्वेत कमल के आसन को पसंद करती हैं, जिनके स्तन भरे हुए हैं, जिनकी आंखें कमल फूल के समान घूमती हैं और जो मनस्विनी हैं, वह देवी सरस्वती मुझ पर अपनी कृपा बनाए रखें।
Who shines like a lotus flower, who is a meditator, who loves the seat of white lotus, whose breasts are full, who has shifting eyes like a lotus flower and who is wise, may that goddess Saraswati shower her grace on me.
सरस्वति नमस्तुभ्यं वरदे कामरूपिणि ।
विद्यारम्भं करिष्यामि सिद्धिर्भवतु मे सदा ॥५॥
हे इच्छानुसार रूप धारण करने वाली और वर देने वाली माता सरस्वती, मैं आपको नमस्कार करता/करती हूँ। मैं विद्या ग्रहण करना आरम्भ कर रहा/रही हूँ, मुझे इस कार्य में सदा सिद्धि मिले।
O Goddess Saraswati! you take forms as you wish and you bestow blessings, I bow to you. I am going to start my studies, may I always succeed in this venture.
सरस्वति नमस्तुभ्यं सर्वदेवि नमो नमः ।
शान्तरूपे शशिधरे सर्वयोगे नमो नमः ॥६॥
मैं देवी सरस्वती को नमस्कार करता हूँ; मैं सभी की देवी को प्रणाम करता हूँ। जो शांतस्वरूपा हैं, चंद्रमा धारण करती हैं और जो सभी योगों में सिद्ध हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।
I salute Goddess Saraswati; I salute the goddess of all. Salutations to her again and again who is an embodiment of peace, who carries the moon and who is the master of all yogas.
नित्यानन्दे निराधारे निष्कलायै नमो नमः ।
विद्याधरे विशालाक्षि शुद्धज्ञाने नमो नमः ॥७॥
जो सदैव आनंद में रहती हैं, जो निराधार (सबकी आधार स्वरूपा) हैं और जो अखण्ड (सम्पूर्ण) हैं, उनको बारम्बार नमन है। जो समस्त विद्यायें धारण करती हैं, बड़ी आँखों वाली हैं तथा शुद्ध ज्ञान स्वरूपा हैं, उन्हें पुनः पुनः नमस्कार है।
We salute her again and again, who always remains in bliss, who is independent (the support of all) and who is unbroken (complete). Salutations once again to the one who possesses all the knowledge, has big eyes and is the embodiment of pure knowledge.
शुद्धस्फटिकरूपायै सूक्ष्मरूपे नमो नमः ।
शब्दब्रह्मि चतुर्हस्ते सर्वसिद्ध्यै नमो नमः ॥८॥
जो शुद्ध स्फटिक के समान पवित्र हैं और जिनका स्वरूप सूक्ष्म है, उनको बारम्बार नमस्कार है। जो शब्द (नाद) ब्रह्म हैं, चार भुजाओं वाली हैं और जो सर्व सिद्धि-स्वरुप हैं, उन्हें बारम्बार प्रणाम है।
Repeated salutations to the one who is as pure as pure crystal and whose form is subtle. I salute her again and again, who is the embodiment of God (Brahman as Sound), who has four arms and who is the bestower of all accomplishments.
मुक्तालङ्कृतसर्वाङ्ग्यै मूलाधारे नमो नमः ।
मूलमन्त्रस्वरूपायै मूलशक्त्यै नमो नमः ॥९॥
जिनका पूरा शरीर श्वेत मोतियों के आभूषण से सुसज्जित है तथा जो सृष्टि की मुख्य आधार हैं, उनको पुनः पुनः नमन है। जो मूल मंत्र स्वरूपा और मूल शक्ति हैं, उन्हें बारम्बार नमस्कार है।
I salute her again and again, whose whole body is decorated with ornaments of white pearls and who is the main support of the universe. Many salutations to her who is the embodiment of the original mantra and is the original power.
मनो मणिमहायोगे वागीश्वरि नमो नमः ।
वाग्भ्यै वरदहस्तायै वरदायै नमो नमः ॥१०॥
जो महान योग के रूप में मन के भीतर चमकती मणि की तरह है, जो वाणी की देवी हैं, उन्हें बारम्बार नमस्कार। जो वाणी का स्रोत हैं, जो वरदान देने वाला हाथ आगे बढ़ाकर वरदान देने वाली हैं, उन्हें I बारम्बार प्रणाम है।
I bow to her again and again who is like a shining gem within the mind in the form of great yoga and who is the goddess of speech. Repeated salutations to the one who is the source of speech, who extends the blessing hand and bestows blessings.
वेदायै वेदरूपायै वेदान्तायै नमो नमः ।
गुणदोषविवर्जिन्यै गुणदीप्त्यै नमो नमः ॥११॥
जो स्वयं वेद हैं (अर्थात् समस्त ज्ञान का स्रोत हैं) तथा वेद और वेदान्त का मूर्त रूप हैं, उन्हें बारम्बार नमन। जो सांसारिक गुण और दोष से मुक्त है, किन्तु दिव्य गुणों से देदीप्यमान हैं, उन्हें बारम्बार नमस्कार है।
Many salutations to the one who is the Veda itself (i.e. the source of all knowledge) and who is the embodiment of the Vedas and Vedanta. I salute her again and again who is free from worldly qualities and defects, but is resplendent with divine virtues.
सर्वज्ञाने सदानन्दे सर्वरूपे नमो नमः ।
सम्पन्नायै कुमार्यै च सर्वज्ञे नमो नमः ॥१२॥
जो समस्त ज्ञान का सार हैं, सदा परमानंद में लीन रहती हैं तथा जो सभी रूपों में विद्यमान हैं, उन्हें बारम्बार प्रणाम। जो संपन्न हैं, सदा युवावस्था में रहती हैं और सर्वज्ञ हैं, उन्हें बारम्बार नमस्कार है।
Many salutations to the one who is the essence of all knowledge, is always blissful and is present in all forms. Salutations to her again and again, who is prosperous, remains youthful and is omniscient.
योगानार्य उमादेव्यै योगानन्दे नमो नमः ।
दिव्यज्ञान त्रिनेत्रायै दिव्यमूर्त्यै नमो नमः ॥१३॥
जो योग की शिक्षा देने वाली और योग का परम आनन्द स्वरूप, स्वयं उमा देवी (माता पार्वती) हैं, उन्हें बारम्बार नमस्कार है। दिव्य ज्ञान रूपी तीसरे नेत्र के कारण जो त्रिनेत्री हैं और जिनका दिव्य रूप है, उन्हें बारम्बार प्रणाम है।
Many salutations to the one who is Uma Devi (Goddess Parvati) herself, who teaches Yoga and is the embodiment of the ultimate joy of Yoga. Salutations to her again and again, who has a divine form and is Trinetri (three-eyed) due to the third eye in the form of divine knowledge.
अर्धचन्द्रजटाधारि चन्द्रबिम्बे नमो नमः ।
चन्द्रादित्यजटाधारि चन्द्रबिम्बे नमो नमः ॥१४॥
जो अपने घुँघराले केशों पर अर्धचंद्र धारण किये हुए हैं तथा जिनका सुन्दर मुख चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब के समान चमकता है, उन्हें बारम्बार नमन है। जो सूर्य और चन्द्रमा को मस्तक पर आभूषण के रूप में धारण करती हैं तथा जिनका सुन्दर मुख चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब के समान चमकता है, उन्हें बारम्बार प्रणाम है।
Many salutations to the one who wears the crescent moon on her curly hair and whose beautiful face shines like the moon’s reflection. I salute her again and again, who wears the sun and the moon as ornaments on her head and whose beautiful face shines like the reflection of the moon.
अणुरूपे महारूपे विश्वरूपे नमो नमः ।
अणिमाद्यष्टसिद्ध्यायै आनन्दायै नमो नमः ॥१५॥
जो सूक्ष्म रूप, विशाल रूप और विश्वरूप धारण करती हैं, उन्हें बारम्बार नमस्कार है। जो अणिमा आदि आठ सिद्धियों में सिद्ध हैं और आनन्द स्वरूपा हैं, उन्हें बारम्बार प्रणाम है।
Many salutations to the one who assumes the subtle form, the vast form and the universal form. I salute her again and again who is perfect in the eight siddhis (supernatural powers) like Anima, etc. and who is blissful.
ज्ञानविज्ञानरूपायै ज्ञानमूर्ते नमो नमः ।
नानाशास्त्रस्वरूपायै नानारूपे नमो नमः ॥१६॥
जो ज्ञान-विज्ञान का स्वरूप हैं, और स्वयं ज्ञान की मूर्ति हैं, उन्हें बारम्बार नमस्कार है। जो विभिन्न शास्त्रों की धारणा स्वरूपा हैं तथा जिनके विभिन्न रूप हैं, उन्हें बारम्बार प्रणाम है।
Many salutations to the one who is present in the form of knowledge and wisdom and who is the personification of knowledge itself. I salute her again and again, who embodies the essence of different scriptures and has various forms.
पद्मदा पद्मवंशा च पद्मरूपे नमो नमः ।
परमेष्ठ्यै परामूर्त्यै नमस्ते पापनाशिनि ॥१७॥
जो कमल की दात्री हैं (अर्थात कमल के समान पवित्र बनाती हैं), जो कमल के परिवार से हैं (अर्थात जिनकी उत्पत्ति पवित्रता से है) और जो कमल का रूप हैं (अर्थात जिनका रूप पवित्र है), उन्हें बारम्बार प्रणाम है। हे परम-इष्ट, दिव्य-मूर्ति, पापनाशिनी देवी, आपको नमस्कार है।
Many salutations to the one, who is the giver of the lotus (i.e. makes one as pure as the lotus), who is from the lotus family (i.e. whose origin is from purity) and who is in the form of the lotus (i.e. whose form is pure). O most beloved goddess, one with the divine-form and a destroyer of sins, salutations to you.
महादेव्यै महाकाल्यै महालक्ष्म्यै नमो नमः ।
ब्रह्मविष्णुशिवायै च ब्रह्मनार्यै नमो नमः ॥१८॥
जो महादेवी, महाकाली एवं महालक्ष्मी हैं, उन्हें बारम्बार नमन है। जो ब्रह्मा, विष्णु और शिव की संयुक्त रूपा हैं और जो ब्रह्माजी की पत्नी हैं, उन्हें बारम्बार प्रणाम है।
Many salutations to the one who is Mahadevi (great goddess), Mahakali and Mahalakshmi. I salute her again and again, who is the combined essence of Brahma, Vishnu and Shiva and who is Brahma’s wife.
कमलाकरपुष्पा च कामरूपे नमो नमः ।
कपालि कर्मदीप्तायै कर्मदायै नमो नमः ॥१९॥
जो कमल (पवित्रता) का स्रोत हैं और जो इच्छानुसार रूप धारण करती हैं, उन्हें बारम्बार नमस्कार है। जो यज्ञों की प्राप्तिकर्ता हैं, यज्ञों की आहुति के समान चमकती हैं और यज्ञों का फल देने वाली हैं, उन्हें बारम्बार प्रणाम है।
Many salutations to the one who is the source of the lotus (purity) and who takes the form as per her wish. I salute her again and again, who is the recipient of the yagyas (sacrificial fire rituals), who shines like the offering of the yagyas and who gives the results of the yagyas.
सायं प्रातः पठेन्नित्यं षण्मासात् सिद्धिरुच्यते ।
चोरव्याघ्रभयं नास्ति पठतां शृण्वतामपि ॥२०॥
जो इस स्तोत्र का नियमित रूप से सुबह और शाम छह महीने तक भक्ति पूर्वक पाठ करते हैं, वे सिद्धि (आध्यात्मिक शक्ति) पाते हैं। जो इस स्तोत्र को पढ़ते या सुनते हैं उन्हें चोरों का या बाघ (जंगली जानवर) का डर नहीं होता।
Those who recite this stotra regularly in the morning and evening with devotion for six months attain siddhi (spiritual power). Those who read or listen to this stotra have no fear of thieves or tigers (wild animals).
इत्थं सरस्वती स्तोत्रमगस्त्यमुनि वाचकम् ।
सर्वसिद्धिकरं नॄणां सर्वपापप्रनाशनम् ॥ २१ ॥
इस प्रकार महर्षि अगस्त्य द्वारा रचित यह सरस्वती स्तोत्र मनुष्य को सभी सिद्धियाँ (सफलता) दिलाता है और सभी पापों को नष्ट कर देता है।
This prayer to Sarasvati which is composed by sage Agastya gives all accomplishments and destroys all sins.
॥ इति श्री अगस्त्यमुनिप्रोक्तं सरस्वतीस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
इस प्रकार महर्षि अगस्त्य द्वारा रचित सरस्वती स्तोत्र पूरा होता है।
Thus ends the Saraswati Stotram composed by Sage Agastya.
Vani Stavanam by Sage Yagyavalkya | वाणी स्तवनं याज्ञवल्क्योक्त
॥ श्री सरस्वती स्तोत्रम् / वाणी स्तवनं याज्ञवल्क्योक्त ॥
॥ नारायण उवाच ॥
वाग्देवतायाः स्तवनं श्रूयतां सर्वकामदम् ।
महामुनिर्याज्ञवल्क्यो येन तुष्टाव तां पुरा ॥ १ ॥
भगवान् नारायण कहते हैं — नारद! सरस्वती देवी का स्तोत्र सुनो, जिससे सम्पूर्ण मनोरथ सिद्ध हो जाते हैं। प्राचीन समय की बात है — याज्ञवल्क्य नाम से प्रसिद्ध एक महामुनि थे। उन्होंने उसी स्तोत्र से भगवती सरस्वती की स्तुति की थी।
गुरुशापाच्च स मुनिर्हतविद्यो बभूव ह ।
तदाऽऽजगाम दुःखार्तो रविस्थानं च पुण्यदम् ॥ २ ॥
जब गुरु के शाप से मुनि की श्रेष्ठ विद्या नष्ट हो गयी, तब वे अत्यन्त दुखी होकर लोलार्क-कुण्ड पर, जो उत्तम पुण्य प्रदान करनेवाला सूर्य भगवान का तीर्थ है, गये।
सम्प्राप्य तपसा सूर्यं कोणार्के दृष्टिगोचरे ।
तुष्टाव सूर्य्यं शोकेन रुरोद स पुनः पुनः ॥ ३ ॥
उन्होंने तपस्या के द्वारा सूर्य का प्रत्यक्ष दर्शन पाकर शोक-विह्वल हो भगवान् सूर्य का स्तवन तथा बारम्बार रुदन किया।
सूर्य्यस्तं पाठयामास वेदवेदाङ्गमीश्वरः ।
उवाच स्तुहि वाग्देवीं भक्त्या च स्मृति हेतवे ॥ ४ ॥
तब भगवान सूर्य ने याज्ञवल्क्य को वेद और वेदाङ्ग का अध्ययन कराया । साथ ही कहा — “मुने! तुम स्मरण-शक्ति प्राप्त करने के लिये भक्तिपूर्वक वाग्देवी भगवती सरस्वती की स्तुति करो।’
तमित्युक्त्वा दीननाथो ह्यन्तर्द्धानं जगाम सः ।
मुनिः स्नात्वा च तुष्टाव भक्तिनम्रात्मकन्धरः ॥ ५ ॥
इस प्रकार कहकर दीनजनों पर दया करनेवाले सूर्य अन्तर्धान हो गये । तब याज्ञवल्क्यमुनि ने स्नान किया और विनयपूर्वक सिर झुकाकर वे भक्तिपूर्वक स्तुति करने लगे ।
॥ याज्ञवल्क्य उवाच ॥
कृपां कुरु जगन्मातर्मामेवं हततेजसम् ।
गुरुशापात्स्मृतिभ्रष्टं विद्याहीनं च दुःखितम् ॥ ६ ॥
याज्ञवल्क्य बोले — हे जगन्माता! मुझपर कृपा करो। मेरा तेज नष्ट हो गया है। गुरु के शाप से मेरी स्मरण शक्ति खो गयी है। मैं विद्या से वञ्चित होने के कारण बहुत दुखी हूँ ।
ज्ञानं देहि स्मृतिं देहि विद्यां विद्याधिदेवते (देहि देवते) ।
प्रतिष्ठां कवितां देहि शक्तिं शिष्य-प्रबोधिकाम् ॥ ७ ॥
विद्या की अधिदेवी! तुम मुझे ज्ञान, स्मृति, विद्या, प्रतिष्ठा, कवित्व-शक्ति, शिष्यों को समझाने की शक्ति …
ग्रन्थ-निर्मिति (कर्तृत्व)-शक्तिं च सुशिष्यं (सच्छिष्यं) सुप्रतिष्ठितम् ।
प्रतिभां सत्सभायां च विचारक्षमतां शुभाम् ॥ ८॥
तथा ग्रन्थ रचना करने की क्षमता एवं सुप्रतिष्ठित शिष्य दो । हे माता! मुझे सत्पुरुषों की सभा में प्रतिभा तथा शुभ विचार की क्षमता दो।
लुप्तं सर्वं दैववशान्नवीभूतं पुनः कुरु ।
यथाऽङ्कुरं भस्मनि च करोति देवता पुनः ॥ ९ ॥
जिस प्रकार देवता धूल या राख में छिपे हुए बीज को समयानुसार अंकुरित कर देते हैं, वैसे ही दुर्भाग्यवश मेरा जो सम्पूर्ण ज्ञान नष्ट हो गया है, उसे तुम फिर से प्रकाशित कर दो।
ब्रह्मस्वरूपा परमा ज्योतिरूपा सनातनी ।
सर्वविद्याधिदेवी या तस्यै वाण्यै नमो नमः ॥ १० ॥
जो ब्रह्मस्वरूपा, परमा, ज्योतिरूपा, सनातनी तथा सम्पूर्ण विद्या की अधिष्ठात्री हैं, उन वाणीदेवी को बार-बार प्रणाम है।
यया विना जगत् सर्वं शश्वज्जीवन्मृतं सदा ।
ज्ञानाधिदेवी या तस्यै सरस्वत्यै नमो नमः ॥ ११ ॥
जिनके बिना सारा जगत् सदा जीते-जी मरे के समान है तथा जो ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी हैं, उन माता सरस्वती को बारम्बार नमस्कार है।
यया विना जगत् सर्वं मूकमुन्मत्तवत्सदा ।
वागधिष्ठातृदेवी या तस्यै वाण्यै नमो नमः ॥ १२ ॥
जिनके बिना सारा जगत् सदा गूंगा और पागल के समान हो जाता है तथा जो वाणी की अधिष्ठात्री देवी हैं, उन वाग्देवी को बारम्बार प्रणाम है।
हिमचन्दनकुन्देन्दुकुमुदाम्भोजसंनिभा ।
वर्णाधिदेवी या तस्यै चाक्षरायै नमो नमः ॥ १३ ॥
जिनकी अंग-कान्ति हिम, चन्दन, कुन्द, चन्द्रमा, कुमुद तथा श्वेतकमल के समान उज्ज्वल है तथा जो वर्णों (अक्षरों) की अधिष्ठात्री देवी हैं, उन अक्षर-स्वरूपा देवी सरस्वती को बारम्बार नमस्कार है ।
विसर्ग बिन्दुमात्राणां यदधिष्ठानमेव च ।
इत्थं त्वं गीयसे सद्भिर्भारत्यै ते नमो नमः ॥ १४ ॥
विसर्ग, बिन्दु एवं मात्रा — इन तीनों का जो अधिष्ठान (आधार) है, वह तुम हो; इस प्रकार सज्जन पुरुष तुम्हारी महिमाका गान करते हैं । तुम्हीं भारती हो। तुम्हें बारम्बार नमस्कार है।
यया विनाऽत्र संख्याता संख्यां कर्तुं न शक्यते ।
काल संख्यास्वरूपा या तस्यै देव्यै नमो नमः ॥ १५ ॥
जिनके बिना सुप्रसिद्ध गणक भी संख्या के परिगणन में सफलता नहीं प्राप्त कर सकता, उन कालसंख्या-स्वरूपिणी भगवती को बारम्बार नमस्कार है।
व्याख्यास्वरूपा या देवी व्याख्याधिष्ठातृदेवता ।
भ्रमसिद्धान्तरूपा या तस्यै देव्यै नमो नमः ॥ १६ ॥
जो व्याख्यास्वरूपा तथा व्याख्या की अधिष्ठात्री देवी हैं, भ्रम और सिद्धान्त दोनों जिनके स्वरूप हैं, उन वाग्देवी को बारम्बार नमस्कार है।
स्मृतिशक्तिर्ज्ञानशक्तिर्बुद्धिशक्तिस्वरूपिणी ।
प्रतिभा कल्पना शक्तिर्या च तस्यै नमो नमः । ॥ १७ ॥
जो स्मृतिशक्ति, ज्ञानशक्ति और बुद्धिशक्ति स्वरूपा हैं तथा जो प्रतिभा और कल्पना-शक्ति हैं, उन भगवती को बारम्बार प्रणाम है ।
सनत्कुमारो ब्रह्माणं ज्ञानं पप्रच्छ यत्र वै ।
बभूव जडवत् सोऽपि सिद्धान्तं कर्तुमक्षमः ॥ १८ ॥
एक बार सनत्कुमार ने जब ब्रह्माजी से ज्ञान पूछा, तब ब्रह्मा भी जडवत् हो गये। सिद्धान्त की स्थापना करने में समर्थ न हो सके।
तदाऽऽजगाम भगवानात्मा श्रीकृष्ण ईश्वरः ।
उवाच स च तं स्तौहि वाणीमिष्टां प्रजापते ॥ १९ ॥
तब स्वयं परमात्मा भगवान् श्रीकृष्ण वहाँ पधारे। उन्होंने आते ही कहा — “प्रजापते! तुम उन्हीं इष्टदेवी भगवती सरस्वती की स्तुति करो।“
स च तुष्टाव त्वां ब्रह्मा चाऽऽज्ञया परमात्मनः।
चकार त्वत्प्रसादेन तदा सिद्धान्तमुत्तमम् ॥ २० ॥
हे देवी! परमप्रभु श्रीकृष्ण की आज्ञा पाकर ब्रह्मा ने तुम्हारी स्तुति की। तुम्हारी कृपा से उत्तम सिद्धान्त के विवेचन में वे सफलीभूत हो गये ।
यदाप्यनन्तं पप्रच्छ ज्ञानमेकं वसुन्धरा।
बभूव मूकवत् सोऽपि सिद्धान्तं कर्तुमक्षमः ॥ २१ ॥
ऐसे ही एक बार पृथ्वी ने अनन्त जी (शेषनाग) से ज्ञान का रहस्य पूछा। तब शेषजी भी मूकवत् हो गये; सिद्धान्त नहीं बता सके।
तदा त्वां च स तुष्टाव सन्त्रस्तः कश्यपाज्ञया।
ततश्चकार सिद्धान्तं निर्मलं भ्रमभञ्जनम् ॥ २२ ॥
उनके हृदय में घबराहट उत्पन्न हो गयी । फिर कश्यप की आज्ञा के अनुसार उन्होंने आप (सरस्वती) की स्तुति की। इससे शेषजी ने भ्रम को दूर करनेवाले निर्मल सिद्धान्त की स्थापना में सफलता प्राप्त कर ली।
व्यासः पुराणसूत्रं च पपृच्छ वाल्मिकिं यदा ।
मौनीभूतः स सस्मार त्वामेव जगदम्बिकाम् ॥ २३ ॥
जब व्यासजी ने महर्षि वाल्मीकि से पुराणसूत्र के विषय में प्रश्न किया। तब वे भी चुप हो गये। ऐसी स्थिति में मुनिवर वाल्मीकि ने आप जगदम्बा का ही स्मरण किया।
तदा चकार सिद्धान्तं त्वद्वरेण मुनीश्वरः ।
सम्प्राप्य निर्मलं ज्ञानं प्रमादध्वंसकारणम् ॥ २४ ॥
आपने उन्हें वर दिया, जिसके प्रभाव से वे सिद्धान्त का प्रतिपादन कर सके। उस समय उन्हें प्रमाद को मिटानेवाला निर्मल ज्ञान प्राप्त हो गया था।
पुराण सूत्रं श्रुत्वा स व्यासः कृष्णकलोद्भवः ।
त्वां सिषेवे च दध्यौ तं शतवर्षं च पुष्करे ।
तदा त्वत्तो वरं प्राप्य स कवीन्द्रो बभूव ह ॥ २५ ॥
भगवान् श्रीकृष्ण के अंश व्यासजी वाल्मीकिमुनि के मुख से पुराणसूत्र सुनकर … (उसका अर्थ कविता के रूप में स्पष्ट करने के लिये) तुम्हारी ही उपासना और ध्यान करने लगे। उन्होंने पुष्कर-क्षेत्र में रहकर सौ वर्षों तक तुम्हारी उपासना की। माता! तब तुमसे वर पाकर व्यासजी कवीश्वर बन गये।
तदा वै वेदभागं च पुराणानि चकार ह।
यदा महेन्द्रे पप्रच्छ तत्त्वज्ञानं सदाशिवम् ॥ २६ ॥
उस समय उन्होंने वेदों का विभाजन तथा पुराणों की रचना की। जब देवराज इन्द्र ने भगवान् शंकर से तत्त्वज्ञान के विषय में प्रश्न किया,
क्षणं त्वामेव सञ्चिन्त्य तस्मै ज्ञानं दधौ विभुः ।
पप्रच्छ शब्दशास्त्रं च महेन्द्रश्च बृहस्पतिम् ॥ २७ ॥
तब क्षणभर भगवती का ध्यान करके वे उन्हें ज्ञानोपदेश करने लगे। फिर इन्द्र ने बृहस्पति से शब्दशास्त्र के विषय में पूछा।
दिव्यं वर्षसहस्रं च स त्वां दध्यौ च पुष्करे।
तदा त्वत्तो वरं प्राप्य दिव्यवर्षसहस्रकम्।
उवाच शब्दशास्त्रं च तदर्थं च सुरेश्वरम् ॥ २८ ॥
जगदम्बे! उस समय बृहस्पति पुष्करक्षेत्र में जाकर एक हजार दिव्य वर्ष तक तुम्हारे ध्यान में संलग्न रहे । इतने वर्षों के बाद तुमने उन्हें वर प्रदान किया। तब वे इन्द्र को शब्दशास्त्र और उसका अर्थ समझा सके।
अध्यापिताश्च यैः शिष्याः यैरधीतं मुनीश्वरैः ।
ते च त्वां परिसञ्चिन्त्य प्रवर्तन्ते सुरेश्वरि ॥ २९ ॥
बृहस्पति ने जितने शिष्यों को पढ़ाया और जितने सुप्रसिद्ध मुनि उनसे अध्ययन कर चुके हैं, वे सब-के-सब, हे भगवती सुरेश्वरी! तुम्हारा चिन्तन करने के पश्चात् ही सफलीभूत हुए हैं।
त्वं संस्तुता पूजिता च मुनीन्द्रैर्मनुमानवैः ।
दैत्येन्द्रैश्च सुरैश्चापि ब्रह्मविष्णुशिवादिभिः ॥ ३० ॥
माता! वह देवी तुम्हीं हो। मुनीश्वर, मनु और मानव — सभी तुम्हारी पूजा और स्तुति कर चुके हैं। ब्रह्मा, विष्णु, शिव, देवता और दानवेश्वर प्रभृति — सबने तुम्हारी उपासना की है।
जडीभूतः सहस्रास्यः पञ्चवक्त्रश्चतुर्मुखः ।
यां स्तोतुं किमहं स्तौमि तामेकास्येन मानवः ॥ ३१ ॥
जब हजार मुखवाले शेष, पाँच मुखवाले शंकर तथा चार मुखवाले ब्रह्मा तुम्हारा यशोगान करने में जडवत् हो गये, तब एक मुखवाला मैं मानव तुम्हारी स्तुति कर ही कैसे सकता हूँ?
इत्युक्त्वा याज्ञवल्क्यश्च भक्तिनम्रात्मकन्धरः ।
प्रणनाम निराहारो रुरोद च मुहुर्मुहुः ॥ ३२ ॥
नारद! इस प्रकार स्तुति करके मुनिवर याज्ञवल्क्य भगवती सरस्वती को प्रणाम करने लगे । उस समय भक्ति के कारण उनका कंधा झुक गया था। उनकी आँखों से जल की धाराएँ निरन्तर गिर रही थीं।
तदा ज्योतिः स्वरूपा सा तेन दृष्टाऽप्युवाच तम् ।
सुकवीन्द्रो भवेत्युक्त्वा वैकुण्ठं च जगाम ह ॥ ३३ ॥
इतने में ज्योतिःस्वरूपा महामाया का उन्हें दर्शन प्राप्त हुआ। देवी ने उनसे कहा — ‘मुने! तुम सुप्रख्यात कवि हो जाओ।’ यों कहकर भगवती महामाया वैकुण्ठ पधार गयीं।
याज्ञवल्क्यकृतं वाणीस्तोत्रमेतत्तु यः पठेत् ।
स कवीन्द्रो महावाग्मी बृहस्पतिसमो भवेत् ॥ ३४ ॥
जो पुरुष याज्ञवल्क्य रचित इस सरस्वती स्तोत्र को पढ़ता है, उसे कवीन्द्र-पद की प्राप्ति हो जाती है । भाषण करने में वह बृहस्पति के समान हो जाता है।
महामूर्खश्च दुर्मेधा वर्षमेक यदा पठेत् ।
स पण्डितश्च मेधावी सुकविश्च भवेद् ध्रुवम् ॥ ३५ ॥
कोई महान् मूर्ख अथवा दुर्बुद्धि ही क्यों न हो, यदि वह एक वर्ष तक नियमपूर्वक इस स्तोत्र का पाठ करता है तो वह निश्चय ही पण्डित, परम बुद्धिमान् एवं सुकवि हो जाता है ।
॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे याज्ञवल्क्योक्त वाणीस्तवनं नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥