हिमालय उवाच –
त्वं ब्रह्मा सृष्टिकर्ता च त्वं विष्णुः परिपालकः।
त्वं शिवः शिवदोऽनन्तः सर्वसंहारकारकः ॥1॥
(हे परम शिव!) आप ही सृष्टिकर्ता ब्रह्मा हैं, आप ही जगत के पालक विष्णु हैं, आप ही सबका संहार करने वाले अनन्त हैं और आप ही कल्याणकारी शिव हैं।
तवमीश्वरो गुणातीतो ज्योतीरूपः सनातनः।
प्रकृतिः प्रकृतीशश्च प्राकृतः प्रकृतेः परः ॥2॥
आप गुणातीत ईश्वर, सनातन ज्योतिःस्वरूप हैं, प्रकृति और प्रकृतिपति हैं, प्राकृत होते हुए भी प्रकृति से परे हैं।
नानारूपविधाता त्वं भक्तानां ध्यानहेतवे।
येषु रूपेषु यत्प्रीतिस्तत्तद्रूपं विभर्षि च ॥3॥
भक्तों के ध्यान करने के लिए आप अनेक रूप धारण करते हैं। जिन रूपों में जिसकी प्रीति है, उसके लिए आप वही रूप धारण कर लेते हैं।
सूर्यस्त्वं सृष्टिजनक आधारः सर्वतेजसाम्।
सोमस्त्वं शस्य पाता च सततं शीतरश्मिना ॥4॥
आप ही सृष्टि के जन्मदाता सूर्य हैं। समस्त तेजों के आधार हैं। आप ही शीतल किरणों से सदा शस्यों (फसलों) का पालन करने वाले सोम हैं।
वायुस्त्वं वरुणस्त्वं च त्वमग्निः सर्वदाहकः।
इन्द्रस्त्वं देवराजश्च कालो मृत्युर्यमस्तथा ॥5॥
आप ही वायु, वरुण और सर्वदाहक अग्नि हैं। आप ही देवराज इन्द्र, काल, मृत्यु तथा यम हैं।
मृत्युञ्जयो मृत्युमृत्युः कालकालो यमान्तकः।
वेदस्त्वं वेदकर्ता च वेदवेदाङ्गपारगः ॥6॥
मृत्युंजय होने के कारण मृत्यु की भी मृत्यु, काल के भी काल तथा यम के भी यम हैं। वेद, वेदकर्ता तथा वेद-वेदांगों के पारंगत विद्वान भी आप ही हैं।
विदुषां जनकस्त्वं च विद्वांश्च विदुषां गुरुः।
मन्त्रस्त्वं हि जपस्त्वं हि तपस्त्वं तत्फलप्रदः ॥7॥
आप ही विद्वानों के जनक, विद्वान तथा विद्वानों के गुरु हैं। आप ही मंत्र, जप, तप और उनके फलदाता हैं।
वाक् त्वं वागधिदेवी त्वं तत्कर्ता तद्गुरुः स्वयम् ।
अहो सरस्वतीबीजं कस्त्वां स्तोतुमिहेश्वरः ॥8॥
आप ही वाक् और आप ही वाणी की अधिष्ठात्री देवी हैं। आप ही उसके स्रष्टा और गुरु हैं। अहो ! सरस्वती बीजस्वरूप आपकी स्तुति यहाँ कौन कर सकता है?
इत्येवमुक्त्वा शैलेन्द्रस्तस्थौ धृत्वा पदाम्बुजम् ।
तत्रोवास तमाबोध्य चावरुह्य वृषाच्छिवः ॥9॥
ऐसा कहकर गिरिराज हिमालय उन (भगवान् शिव) के चरण कमलों को पकड़ कर खड़े रहे। भगवान् शिव ने वृषभ से उतरकर शैलराज को प्रबोध देकर वहाँ निवास किया।
स्तोत्रमेतन्महापुण्यं त्रिसंध्यं यः पठेन्नरः।
मुच्यते सर्वपापेभ्यो भयेभ्यश्च भवार्णवे ॥10॥
जो मनुष्य तीनों संध्याओं के समय इस परम पुण्यमय स्तोत्र का पाठ करता है, वह भवसागर में रहकर भी समस्त पापों तथा भयों से मुक्त हो जाता है।
अपुत्रो लभते पुत्रं मासमेकं पठेद् यदि ।
भार्याहीनो लभेद् भार्यां सुशीलां सुमनोहराम् ॥11॥
पुत्रहीन मनुष्य यदि एक मास तक इसका पाठ करे तो संतान पाता है। भार्याहीन को सुशीला तथा परम मनोहारिणी पत्नी प्राप्त होती है।
चिरकालगतं वस्तु लभते सहसा ध्रुवम् ।
राज्यभ्रष्टो लभेद् राज्यं शङ्करस्य प्रसादतः ॥12॥
वह चिरकाल से खोयी हुई वस्तु को सहसा तथा अवश्य पा लेता है। राज्यभ्रष्ट पुरुष भगवान् शंकर के प्रसाद से पुनः राज्य को प्राप्त कर लेता है।
कारागारे श्मशाने च शत्रुग्रस्तेऽतिसङ्कटे ।
गभीरेऽतिजलाकीर्णे भग्नपोते विषादने ॥13॥
रणमध्ये महाभीते हिंस्रजन्तुसमन्विते ।
सर्वतो मुच्यते स्तुत्वा शङ्करस्य प्रसादतः ॥14॥
कारागार, श्मशान और शत्रु-संकट में पड़ने पर तथा अत्यन्त जल से भरे गम्भीर जलाशय में नाव टूट जाने पर, विष खा लेने पर, महाभयंकर संग्राम के बीच फँस जाने पर तथा हिंसक जंतुओं से घिर जाने पर इस स्तुति का पाठ करके मनुष्य भगवान् शंकर की कृपा से समस्त भयों से मुक्त हो जाता है।
॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्तपुराणे हिमालयकृतं शिवस्तोत्रं संपूर्णम् ॥
इस प्रकार श्रीब्रह्मवैवर्तपुराण में हिमालयकृत शिवस्तोत्र सम्पूर्ण हुआ।