(अनुशासन पर्व, दानधर्मपर्व, ५१/२६-३४)
गोभिस्तुल्यं न पश्यामि धनं किञ्चिदिहाच्युत॥
कीर्तनं श्रवणं दानं दर्शनं चापि पार्थिव।
गवां प्रशस्यते वीर सर्वपापहरं शिवम् ॥
(महर्षि च्यवन ने राजा नहुष से कहा -) अपनी मर्यादा से कभी च्युत न होनेवाले हे राजेन्द्र ! मैं इस संसार में गौओं के समान दूसरा कोई धन नहीं देखता हूँ। वीर भूपाल ! गौओं के नाम और गुणों का कीर्तन तथा श्रवण करना, गौओं का दान देना और उनका दर्शन करना – इनकी शास्त्रों में बड़ी प्रशंसा की गयी है। ये सब कार्य सम्पूर्ण पापों को दूर करके परम कल्याण की प्राप्ति कराने वाले हैं।
गावो लक्ष्म्याहाः सदा मूलं गोषु पाप्मा न विद्यते।
अन्नमेव सदा गावो देवानां परमं हविः ॥
गौएँ सदा लक्ष्मी की मूल हैं। गौओं में पाप की स्थिति नहीं होती है। गौएँ ही मनुष्यों को सर्वदा अन्न और देवताओं को हविष्य देने वाली हैं।
स्वाहाकारवषट्कारौ गोषु नित्यं प्रतिष्ठितौ।
गावो यज्ञस्य नेत्र्यो वै तथा यज्ञस्य ता मुखम्॥
स्वाहा और वषट्कार सदा गौओं में ही प्रतिष्ठित होते हैं। गौएँ ही यज्ञ का संचालन करने वाली तथा उसका मुख हैं।
अमृतं ह्यव्ययं दिव्यं क्षरन्ति च वहन्ति च।
अमृतायतनं चैताः सर्वलोकनमस्कृताः ॥
विकाररहित दिव्य अमृत धारण करती और दुहने पर अमृत ही देती हैं। वे अमृत की आधारभूत हैं। सारा संसार उनके सामने नतमस्तक होता है।
तेजसा वपुषा चैव गावो वह्निसमा भुवि।
गावो हि सुमहत् तेजः प्राणिनां च सुखप्रदाः॥
इस पृथ्वी पर गौएँ अपनी काया और कान्ति से अग्नि के समान हैं। वे महान तेज की राशि और समस्त प्राणियों को सुख देने वाली हैं।
निविष्टं गोकुलं यत्र श्वासं मुञ्चति निर्भयम्।
विराजयति तं देशं पापं चास्यापकर्षति॥
गौओं का समुदाय जहाँ बैठकर निर्भयतापूर्वक साँस लेता है, उस स्थान की शोभा बढ़ा देता है और वहाँ के सारे पापों को खींच लेता है।
गावः स्वर्गस्य सोपानं गावः स्वर्गे पि पूजिताः।
गावः कामदुहो देव्यो नान्यत् किञ्चित् परं स्मृतम्॥
गौएँ स्वर्ग की सीढ़ी हैं, गौएँ स्वर्ग में भी पूजी जाती हैं। गौएँ समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाली देवियाँ हैं। उनसे बढ़कर और कोई श्रेष्ठ वस्तु नहीं है।
इत्येतद् गोषु मे प्रोक्तं माहात्म्यं भरतर्षभ।
गुणौकदेशवचनं शक्यं पारायणं न तु ॥
भरतश्रेष्ठ ! यह मैंने गौओं का माहात्म्य बताया है। इसमें उनके दिव्य गुणों का दिग्दर्शन मात्र कराया गया है। गौओं के संपूर्ण गुणों का वर्णन तो कोई कर ही नहीं सकता।
(अनुशासन पर्व, दानधर्मपर्व, अ० ६९)
तुल्यानामानि देयाणि त्रीणि तुल्यफलानि च।
सर्वकामफलानीह गावः पृथ्वी सरस्वती॥
(भीष्म जी ने कहा – युधिष्ठिर!) गाय, भूमि और सरस्वती – ये तीनों समान नाम वाली हैं – इन तीनों वस्तुओं का दान करना चाहिए। इन तीनों के दान का फल भी समान ही है। ये तीनों वस्तुएँ मनुष्यों की सम्पूर्ण कामनाएँ पूर्ण करने वाली हैं।
मातरः सर्वभूतानां गावः सर्वसुखप्रदाः।
वृद्धिमाकांक्षता नित्यं गावः कार्याः प्रदक्षिणाः॥
गौएँ सम्पूर्ण प्राणियों की माता कहलाती हैं। वे सबको सुख देने वाली हैं। जो अपने अभ्युदय की इच्छा रखता हो, उसे गौओं को सदा दाहिने करके चलना चाहिए।
सन्ताड्या न तु पादेन गवां मध्ये न च व्रजेत्।
मङ्गलायतनं देव्यस्तस्मात् पूज्याः सदैव हि॥
गौओं को लात न मारे। उनके बीच से होकर न निकले। वे मंगल की आधारभूत देवियाँ हैं, अतः उनकी सदा ही पूजा करनी चाहिए।
प्रचोदनं देवकृतं गवां कर्मसु वर्तताम्।
पूर्वमेवाक्षरं चान्यदभिदेयं ततः परम्॥
देवताओं ने भी यज्ञ के लिए भूमि जोतते समय बैलों को डंडे आदि से हाँका था। अतः पहले यज्ञ के लिए ही बैलों को जोतना या हाँकना श्रेयस्कर माना गया है।
प्रचारे वा निवाते वा युधो नोद्वेजयेत गाः।
तृषिता ह्यभिवीक्षन्त्यो नरं हन्युः सबान्धवम्॥
विद्वान पुरुषों को चाहिए कि जब गौएँ स्वच्छन्दता पूर्वक विचर रही हों अथवा किसी उपद्रवशून्य स्थान में बैठी हों तो उन्हें उद्वेग में न डाले। जब गौएँ प्यास से पीड़ित हो जल की इच्छा से अपने स्वामी की और देखती हैं (और वह उन्हें पानी नहीं पिलाता है), तब वे रोषपूर्ण दृष्टि से बन्धु-बान्धवों सहित उसका नाश कर देती हैं।
पितृसद्यानि सततं देवतायतनानि च।
पूयन्ते शकृता यासां पूतं किमधिकं ततः॥
जिनके गोबर से लीपने पर देवताओं के मंदिर और पितरों के श्राद्ध स्थान पवित्र होते हैं, उनसे बढ़कर पावन और क्या हो सकता है?
घासमुष्टिं परगवे दद्यात् संवत्सरं तु यः।
अकृत्वा स्वयमाहारं व्रतं तत् सार्वकामिकम्॥
जो एक वर्ष तक प्रतिदिन स्वयं भोजन के पहले दूसरे की गाय को एक मुट्ठी घास खिलाता है, उसका वह व्रत समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाला होता है।
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ईश्वरः स गवां मध्ये। (महाभारत, अनुशासन पर्व ७७/२९)
गौओं के मध्य में ईश्वर की स्थिति होती है।
गावः प्रतिष्ठा भूतानां गावः स्वस्त्ययनं महत्। (महाभारत, अनुशासन पर्व ७८/५)
गौएँ मानवों के जीवन का प्रतिष्ठा रुपी परम धन हैं और गौएँ कल्याण की परम निधान हैं।
गावो महार्थाः पुण्याश्च तारयन्ति च मानवान्
धारयन्ति प्रजाश्चेमा हविषा पयसा तथा।
न हि पुण्यतमं किञ्चिद् गोभ्यो भरतसत्तम
एताः पुण्याः पवित्राश्च त्रिषु लोकेषु सत्तमाः॥ (महाभारत, अनुशासन पर्व ८१/२-३)
गौएँ महान अर्थ को और पुण्य को देने वाली हैं। गौएँ मनुष्यों का उद्धार करती हैं। गौएँ घृत और दुग्ध से प्रजा का पालन-पोषण करती हैं। अतः हे युधिष्ठिर! गौओं से बढ़कर और कोई पुण्यतम वस्तु नहीं है। गौएँ तीनों लोकों में पुण्य और पवित्र कही गयी हैं।
गावः प्रतिष्ठा भूतानां तथा गावः परायणम्।
गावः पुण्याः पवित्राश्च गोधनं पावनं तथा॥ (महाभारत, अनुशासन पर्व ८१/१२)
गौएँ समस्त प्राणियों की प्रतिष्ठा और सबकी आश्रय (रक्षक) हैं। गौएँ पुण्यप्रद और पवित्र हैं। अतः गोधन को पावन कहा गया है।
गावः श्रेष्ठाः पवित्राश्च पावनं ह्येतदुत्तमम् ॥ (महाभारत, अनुशासन पर्व ८३/३)
गौएँ सर्वश्रेष्ठ तथा पवित्र, पूजन करने योग्य और संसार में सबसे उत्तम हैं।
गावस्तेजः परं प्रोक्तमिहलोके परत्र च।
न गोभ्यः परमं किञ्चित् पवित्रं भरतर्षभ॥ (महाभारत, अनुशासन पर्व ८३/५)
इस लोक और परलोक में गौएँ परम तेजःस्वरूप हैं। हे भरतर्षभ! गौओं से बढ़कर और कोई वस्तु परम पवित्र नहीं है।
यज्ञाङ्गं कथिता गावो यज्ञ एव च वासव।
एताभिश्च विना यज्ञो न वर्तेत कथंचन॥ (महाभारत, अनुशासन पर्व ८३/१७)
गौओं को यज्ञ का अंग और साक्षात् यज्ञरूप कहा गया है। गौओं के बिना यज्ञ कदापि नहीं हो सकते।
(अनुशासन पर्व, ८३/५०-५२)
गोषु भक्तश्च लभते यद् यदिच्छति मानवः। स्त्रियोऽपि भक्ता या गोषु ताश्च काममवाप्नुयुः॥
पुत्रार्थी लभते पुत्रं कन्यार्थी तामवाप्नुयात्। धनार्थी लभते वित्तं धर्मार्थी धर्ममाप्नुयात्॥
विद्यार्थी चाप्नुयाद् विद्यां सुखार्थी प्राप्नुयात् सुखम्। न किञ्चिद् दुर्लभं चैव गवां भक्तस्य भारत॥
गोभक्त मनुष्य जिस-जिस वस्तु की इच्छा करता है, वह सब उसे प्राप्त होती है। स्त्रियों में भी जो गौओं की भक्त हैं, वे मनोवाञ्छित कामनाएँ प्राप्त कर लेती हैं। पुत्रार्थी मनुष्य पुत्र पाता है और कन्यार्थी कन्या। धन चाहने वाले को धन और धर्म चाहने वाले को धर्म प्राप्त होता है। विद्यार्थी विद्या पाता है और सुखार्थी सुख। भारत! गोभक्त के लिए यहाँ कुछ भी दुर्लभ नहीं है।